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प्रवासी

By Virendra Kumar


इंतजाम करने को निकले थे घर की जरूरतों का,

इच्छा से बहुत कम गए अपना गाँव छोड़ कर,

एक तो पहले से बे-इन्तजाम थी जिन्दगी,

और ऊपर से मढ़ गया अंजाना सा कहर,


लड़ाई घर पर रह कर लड़ने को फरमान आया,

मीडिया ने भी खूब जम कर शोर मचाया,

लोगों ने खूब शेयर किये न्यूज ऑनलाइन ,

जितना खाया नहीं उतना सोशल मीडिया पर दिखाया,



बंद हो गया हर शहर, हर गली और हर जिला ,

पर उनका क्या जिनको ना तो घर वापसी का साधन और ना खाने को भोजन मिला,


उनको तो जिस दिन काम उस दिन घर मे दाना है,

भूखे पेट कितने दिन सोये भले ही रहने को ठिकाना है,

खुद के मन को तो किसी तरह बहला लें फिर भी,

पर उन बच्चों का क्या करे जिनके पेट का बोझ भी उनको ही उठाना है,


सवाल आवास का नहीं पेट का था,

फंसे हुए अपनों से भी भेंट का था,

देश का एक अदृश्य हिस्सा उभर कर सड़कों पर आ गया,

उम्मीद बस उस पर ही टिकी थी उपज जो खेत का था,


बैठे थे कुछ दिनों तक कुछ आस लगाए,

की शायद अन्न के 2-4 किलो उनके घर भी पहुँचाया जाए,

पर सरकारी सहयोग का तरीका भी कुछ अजीब हुआ,

अन्न जो बाँटे भी गए वो प्रवासियों को ना नसीब हुआ,


फिर नाप दिए रास्ता हज़ारों मील का,

ना परवाह था रास्ते मे आने वाली मुश्किल का,

बीमारी से पहले कहीं भूख ही ना मार दे ,

इसीलिए लाखों ने छोड़ा शहर और अब गांव ही एक मंजिल था,


हर हुनर की उपज गाँव ने दिया है,

लिया जन्म जहाँ वहाँ से अधिकतर ने प्रवास किया है,

बहुत दिया शहर को अपना पसीना बहा कर,

और बदले में सिर्फ दो वक्त कि रोटी लिया है l


क्यों ना इतिहास को अब बदला जाए,

मानव संसाधन तैयार है और लाचार भी,

क्यों ना उसको घर पर ही रोजगार दिलाएं ,

गाँव की पीढ़ियाँ क्यों रहे शहर के भरोसे,

क्यों ना गाँव को ही अब शहर बनाया जाए l


By Virendra Kumar


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