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प्रेम

By Sanjnna Girdhar



प्रेम ना बाड़ी उपजे,

प्रेम ना हाट बिकाई।

राजा परजा जेहि रुचे,

सीस देहि ले जाई।।

– संत कबीर

भावार्थ: संत कबीर कहते हैं कि प्रेम खेत में नहीं उपजता, प्रेम बाज़ार में भी नहीं बिकता। राजा हो या प्रजा, यदि प्रेम पाना है तो आत्म बलिदान ही एकमात्र मार्ग है। त्याग और समर्पण के अतिरिक्त प्रेम की प्राप्ति संभव नहीं है। प्रेम गहन सघन भावना है, कोई खरीदी/


बेचे जाने वाली वस्तु नहीं।

~

प्रेम का शाब्दिक अर्थ परम है। तात्पर्य यह है कि प्रेम ही हमारे मन में उमड़ते समस्त प्रश्नों का उत्तर है। प्रेम से सब संभव है। प्रेम को समझना कठिन नहीं है किंतु फिर भी हम समझने में असमर्थ होते हैं और अज्ञानतावश मोह, हट और भौतिकवादी भावों को प्रेम समझने की त्रुटि कर देते हैं। हाँ, ये प्रेम के पड़ाव हैं परंतु प्रेम नहीं है। कठिन परिस्थितियों में भी जो नि:स्वार्थ भाव से हमारे संग हो, निर्भय हो, ना कुछ पाने की इच्छा हो और ना ही कुछ खोने का भय, कामना हो तो केवल हमें प्रसन्न देखने की, हमारे साथ अपनी प्रसन्नता और जीवन बाँटने की, यह प्रेम ही तो है। नोक-झोक, खट्टी-मीठी स्मृतियाँ, साथ में बिताए हुए शांति के पल और त्याग का भाव, कितना सरल है प्रेम। अपितु हमने अहं के चंगुल में उलझकर स्वयं के साथ-साथ प्रेम को भी उलझा दिया है। प्रेम आत्मा में वास करता है किंतु मनुष्य तो ठहरा अहंकार का पुजारी। वासना ने प्रेम को कहीं दूर हमारे अंतर्मन के एक कोश में धकेल दिया है, प्रेम करे भी तो क्या, है तो प्रेम ही, क्रूर कैसे बने। इस सर्वश्रेष्ठ और सुंदर भाव को जो हमारी आत्मा में पुष्प जैसा खिला है, हमें इसे उभरने





देना होगा, अहं को त्याग प्रेम को स्वतंत्र मन से आत्मसात् करना होगा। प्रेम, यह ढाई अक्षरों का शब्द स्वयं ईश्वर का पर्याय है। आप चाहे अपने माता-पिता में, अपने प्रेमी-प्रेमिका में, अपने परिवार के सदस्यों में या पूर्ण संसार में प्रेम का बीज बोएँ, वे ईश्वर के समानार्थी ही होंगे। पशु-पक्षी, शेष मनुष्य, कंकर-पत्थर, धरती-आकाश, नदी-समुद्र, इन सब में अंतर तो अहं ही देखता है, यदि प्रेम के चक्षुओं से देखेंगे तो पाएँगे कि सब एक समान है। हम सब एक हैं, भिन्न नहीं। नदी हो या समुद्र, दोनो जल के प्रतिरूप ही हैं। अति तीव्र वेग से नदी जो सारी बाधाओं को पार कर सागर में जा समाती है, यह प्रेम की प्रबलता के कारणवश ही संभव होता है। प्रेम की डोर से जो बंधे हैं दोनों, प्रतिबिंब हैं एक दूजे का। नदी का अंतिम और अतिसुंदर छोर है समुद्र। यही है प्रेम, अंतर से परे और उत्कृष्ट।


By Sanjnna Girdhar








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