By Chanda Arya
अचानक अमृतसर जाने का प्लान बन गया था। बहुत अकुलाहट थी मन में कि बस बाबा जी के दर्शन कर लें। आफिस में छुट्टियों की भी परेशानी हो रही थी। मैं छुटियाँ आगे नहीं बढ़ा पा रही थी, क्योंकि ड्यूटी की शिफ्ट बदल रही थी और कोई मेरी ड्यूटी बदलने को करने को तैयार नहीं था ड्यूटी तो बस जाना था, और दर्शन करके आना था और फिर अपनी ड्यूटी करनी थी। शायद बाबाजी बुलावा था कि इतने कम समय के रहते भी ट्रेन में रिजर्वेशन मिल गया।
तो बस छुट्टियों के इस संकुचित दायरे में घर से दिल्ली तक का सफर तो कार से ही था। दिल्ली से अमृतसर के लिए रेलगाड़ी में रिजर्वेशन था। नई दिल्ली के रेलवे स्टेशन पर हम अपनी रेलगाड़ी का इंतज़ार कर रहे थे । इतने में एक छोटी सी सात - आठ साल की लड़की वहां आयी, और मुझसे कहने लगी कि मैं उससे पेपर सोप खरीद लूँ । कह क्या रही थी मानो ज़िद कर रही थी कि दस रुपयों में मैं उससे पेपर सोप ले लूँ। मैंने कहा,” बच्चे मेरे पास तो पहले से ही बहुत पेपर सोप हैं, मैं क्या करुँगी और लेकर।“ लेकिन वो इतने प्यार से मुझसे और पेपर सोप लेने का आग्रह कर रही थी। पता नहीं उसके चेहरे में कैसा भोलापन था कि छुट्टियों का तनाव भूल कर मेरे चेहरे पर हठात मुस्कराहट आ गयी। मैं अपने पर्स में दस रूपये खोजने लगी। किन्तु पर्स में कोई छुट्टा ही नहीं था और उसे मायूस करने में दिल हिचकिचा रहा था। अंत में छः रूपये के सिक्के मिल गए। मैंने उससे कहा,"बच्चा मेरे पास बस छः रूपये के सिक्के हैं।“ यह सुनकर उसने अपनी मुठ्ठी खोल हथेली फैला दी। उसमें पहले से ही कुछ सिक्के थे। उसने उन्हें बड़े ध्यान से गिना। फिर मेरे हाथ से छः रूपये के सिक्के लिये, और बहुत प्यारी मुस्कराहट के साथ कहा, “आप छः रूपये में पेपर सोप ले लो।“ उसने मेरे दिए हुए छः रूपये के सिक्के अपने सिक्कों में मिला दिए, और बोली, ”अब ये दस रुपये हो गए।“ और मुस्कुराते हुए चली गयी। मैं बहुत देर तक वशीभूत सी उसके जाने की दिशा में देखती रही। अमृतसर जाकर बहुत अच्छी तरह बाबा जी के दर्शन हुए। यात्रा पूरी कर एक अच्छे अनुभव के साथ हम घर लौटे। आज भी जब यात्रा का अनुभव याद करती हूँ, तो बरबस उस प्यारी सी बच्ची का मुस्कुराता हुआ चेहरा भी याद आ जाता है, और मेरे चेहरे पर भी मुस्कान खिला देता है।
By Chanda Arya
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