By Kamakshi Aggarwal
अब सब की बातो से फर्क नहीं पड़ता।
जीतने या हारने में अब फर्क नहीं लगता।
कोई कहे तो हाँ मे सिसक है हमारी,
पर सबकी जुबान से खींच नहीं लगता I
लगती खबीस हूँ खुद को मैं आए दिन।
गलीच होने से भी अब डर नहीं लगता।
कहानियों की तरह दुनिया हसीन नहीं पर,
इन कहानियों में नुक्स निकालने का मन नहीं करता।
अजीब कहलाने से डरती मैं नहीं,
खुद को सही ठहराने से डरती मैं नहीं।
'गाइडलाइंस' को मानने का मेरा मन नहीं करता,
और बनारस की गलियों की तरह टेड़ा होने में दुनिया को ढंग नहीं लगता।
मुझे फ़र्क नहीं पड़ता लोगो की कही बातो से,
मुझे डर नहीं लगता उन चार लोगो की कहीं बातो से।
फर्क पड़वाकर आखिर जाना कहाँ है,
जिंदा लोगो का दुश्मन ये पूरा ज़माना रहा है।
कभी सोचा है क्या होता अगर,
कृष्णा को फर्क पड़ता सुदामा के गरीब होने से,
क्या वो दोस्ती गूंज पाती जन्म- जन्म के खेले में।
फर्क नहीं पड़ा राधा को,
तभी तो आज वो राधा रानी है,
कृष्ण के नाम से पहले उसका नाम सबकी जुबानी है।
फर्क नहीं पड़ा मीरा को, तभी वो मीरा बाई बनी,
कृष्ण साथ न होकर भी,
कृष्ण से दूर कहाँ वो हो पाई।
फर्क नहीं पड़ा द्रौपदी को,
तभी कृष्ण- कृष्णा की मित्रता हुई,
हाथ लोगो ने जब पीछे खींच लिया,
तब उस मित्र ने संयम बढ़ाई।
फर्क नहीं पड़ा झुठे बेर खाने में राम को,
तभी तो वो राजा राम है।
फर्क नहीं पड़ा उन्हे मानव या दानव से, तभी तो वंदनिये नाम है।
लोग क्या कहेंगे का रोना आज से नहीं, हजारो सालो का काम है।
इनसे सुन कर भी जिंदा रहना कामयाबी का नाम है।
तो पंख फैलाओ और उड़ जाओ उस नीले गगन की चपेट में,
जहाँ दुनिया छोटी और सपने बड़े लगे ऐसे एक परदेस में।
पंछी बन नापो दुनिया को क्योकी,
पंछी को फर्क नहीं पड़ता।
और इस फर्क पड़वाने वाली दुनिया को, कामयाबी का सिक्का पेश है,
क्योकी कामयाबी के बाद दुनिया को,
आपकी खामियों से फर्क नहीं पड़ता।
By Kamakshi Aggarwal
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