By Nandlal Kumar
बलात्कार रोकने की चुनौतियाँ
अगर मैं अपनी बात बिना किसी भूमिका के शुरू करूँ तो कहना चाहूँगा कि ये मामला खुली बहस का है। इसपर देश में लम्बी बहस की आवश्यकता तो है ही और पानी सिर से इतना ऊपर हो गया है कि नौवीं कक्षा से सेक्स सम्बन्धी सभी पहलुओं की जानकारी दी जानी चाहिए। इसके मनोवैज्ञानिक और सामाजिक पहलुओं के बारे में बताया जाना चाहिए। असहमति से बनाये गए यौन सम्बन्धों के दुष्परिणाम से अवगत कराया जाना चाहिए। अनपढ़ों के लिए नुक्कड़ नाटक और सभाएं करके उन्हें जानकारी दी जानी चाहिए। मनोवैज्ञानिक इस बात का विश्लेषण करें कि आखिर पशु बलात्कार क्यों नहीं करते? हम पशुओं से आगे कैसे निकल गए? इसके क्या-क्या कारण हैं? लेकिन हम धार्मिक नहीं इतने धर्मभीरु हैं कि इन विषयों पर चौक-चौराहे और यहाँ तक कि मित्रों के वीच भी बोलने से कतराते हैं। भाई, प्रतिदिन सैकड़ों बालाएं इसका शिकार हो रही हैं। हमारा समाज सच पूछिए तो एक अंधेरी गुफा की ओर जा रहा हैं। अगर इस कुकर्म पर लगाम नहीं लगाया जाता है तो विकास के सारे मायने बेकार हैं। दुनियाँ हम पर थूकेगी। हमारे प्राचीन गौरव का मजाक उड़ाया जाएगा। अच्छा ! इन बातों को कौन प्रभावी बना सकता है? सरकार अथवा सरकारी तंत्र ! सरकार किसी की भी हो आजकल एक वर्ग आरक्षण हटाने के लिए वोटों के ध्रुवीकरण के लिए किसी भी सीमा को लांघ सकता है तो दूसरा वर्ग आरक्षण बचाने के लिए कोई भी हद पार कर सकता है। बलात्कार रोकने के लिए इन हदों से ऊपर उठना होगा। इस मसले पर सभी को सामने आकर काम करना होगा।
गैर सरकारी संगठन - भारत देश की बड़ी विडम्बना है कि यदि किसी व्यक्ति को यह महसूस होता है कि कहीं कुछ गलत हो रहा है....तो सबसे पहले वह यह सोचता है कि उसे ठीक करने में वह सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति हो सकता है। और, उसे ठीक करने के लिए वह अपना एक संगठन बनाने पर विचार करता है या बनाता है और बलात्कार रोकने की दिशा में जो संगठन पहले से कार्य कर रहे होते हैं उन्हें वह कमजोर करता है। उसकी ये कोशिश होती है कि पूर्व के संगठन के लोगों को अपनी ओर आकर्षित करे। जबकि करना यह चाहिए था कि वह पहले से काम कर रहे संगठनों में जाकर अपना योगदान दे।
न्यायिक प्रक्रिया - हमारे देश में न्याय देने की प्रक्रिया अत्यंत धीमी है। हजारों - लाखों दीवानी एवं फौजदारी के मुकदमें लालफीता शाही का शिकार होकर अदालतों के ठंडे बस्ते में पड़े रहते हैं । इस संबंध में भारतीय दंड संहिता की धारा 376 एवं संबंधित धाराओं में बदलाब और कठोरता लाने की आवश्यकता है। साथ ही अंग्रेजी ताम-झाम वाले अदालतों के स्वरूप में परिवर्तन लाने की आवश्यकता है। एप्रन, अंधा कानून और गीता पर हाथ रखने वाले चोचलों से बचा जाना चाहिए ताकि न्यायिक प्रक्रिया संक्षिप्त और सरल हो सके। पीड़ित से बार-बार साक्ष्य मांगने की बजाय कानून ऐसा बने कि जो सारी दुनियाँ जान रही है उसके संबंध में साक्ष्य अदालत स्वयं से इकट्ठा करे और बाकी बचे साक्ष्य पीड़ित से मांगे जाएं। बलात्कार के मामले में तीन न्यायालयों के स्तर पर न्यायिक प्रक्रिया तो हो मगर किसी भी अदालत को दो माह से ज्यादा का समय नहीं दिया जाए। इस तरह से पीड़ित को 6 माह के भीतर न्याय मिल जाना चाहिए। त्वरित न्याय मिलने से अपराधियों के सामने अपराध करते समय सजा का दृश्य उभर सकता है और उनका मनोबल टूट सकता है।
यहाँ पर एक और मह्त्वपूर्ण बात यह है कि इतिहास में देखा गया है कि जीते गए राज्यों के नागरिकों का मनोबल तोड़ने के लिए वहाँ की औरतों की अस्मत लूटी जाती थी। मैं दबी जुबान से ही सही कहना चाहूँगा कि देश में कुछ ऐसे बलात्कारी भी इस मानसिकता के साथ सामने आए हैं। तो बलात्कार रोकने के लिए किए गए उपायों पर विचार करते समय इसे भी ध्यान में रखना होगा।
By Nandlal Kumar
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