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बैंक वाले बाबूजी

By Sagar Paliwal


सन् १९७६


भारत एक कृषि प्रधान देश है और इसके प्राण गांवों में बसते है। गांव को गांव बनाने के लिए कई चीजें महत्वपूर्ण होती है– खेत खलियान, मिट्टी-गोबर से बने मकान, गांव के बीच एक बरगद का पेड़ और उसके नीचे बनी चौपाल, एक पीपल का पेड़ और उसके ऊपर भूत प्रेत की कहानियां, एक हनुमान मंदिर, एक पाठशाला, एक बड़ा कुआं, एक तालाब, खुला तारों भरा आसमान, एक किराने की दुकान और बैलों के गले में बजती घंटी की झनकार। इन सबके अलावा कुछ गांवों में होती थी कृषि बैंक और उसे संभालने वाले बैंक प्रभारी जिन्हे ग्रामीण “बैंक वाले बाबूजी” बुलाते थे।

बुरहानपुर, मध्य प्रदेश के दक्षिण में ताप्ती नदी के तट पर स्थित एक ऐतिहासिक शहर, जहां अपने पुश्तैनी घर में संयुक्त परिवार में रहता था राजू, मध्यम कद का एक दुबला लेकिन दुरुस्त लड़का। राजू बी कॉम सेकंड ईयर में था, लेकिन घर की आर्थिक स्थिति सही न होने की वजह से उसने नौकरी करने का निर्णय लिया और अखबार में आए एक कृषि बैंक के इश्तेहार को पढ़कर इंटरव्यू देने चला गया। इंटरव्यू क्लर्क के पद के लिए था और इसके लिए बी कॉम सेकंड ईयर पर्याप्त पढ़ाई थी, राजू से इंटरव्यू में अकाउंटिंग के सवाल पूछे गए जिनका उसने कुशलता से जवाब दिया और उसे ९१ रुपए महीना वेतन के साथ नौकरी मिल गई। जो एक क्लर्क के पद के लिए थोड़ा कम वेतन था पर नौकरी की शुरुआत के हिसाब से ठीक था।

राजू बैंक में नौकरी के साथ पढ़ाई जारी नहीं रख पा रहा था इसलिए उसने पढ़ाई छोड़ दी और अपना पूरा ध्यान नौकरी पर केंद्रित कर लिया। बैंक का काम सीखने के लिए पहले उसकी पोस्टिंग बुरहानपुर शाखा में हुई, जहाँ उसने पूर्ण निष्ठा और कुशलता के साथ बहुत ही कम समय में सारा काम सीख लिया। राजू की कार्य कुशलता देखकर उसकी पदोन्नति हुई और उसे खंडवा के पास स्थित खेड़गांव शाखा का प्रभारी बना दिया गया। राजू अपने मिलनसार स्वभाव के कारण कुछ ही दिनों में गांव वालों के साथ घुल–मिल गया। सभी राजू को “बैंक वाले बाबूजी” बुलाते थे, पहले उसे थोड़ा अजीब लगता था, लेकिन फिर आदत हो गई।

सुबह का समय था, राजू मध्य प्रदेश परिवहन की खचाखच भरी बस से खेड़गांव में उतरा और सड़क पार करके खेत में बनी पगडंडी के रास्ते बैंक की ओर चलने लगा। उसने सफेद कुर्ता पैजामा पहना था।

वो थोड़ी ही दूर चला था की उसे पीछे से किसी ने आवाज दी, "बाबूजी, ओ बैंक वाले बाबूजी!"

राजू ने मुड़कर देखा तो एक मध्य वय का और लगभग उसके ही कद का आदमी उसकी ओर दौड़ कर आ रहा था।

"क्या हुआ, भाईराम भाई?" राजू ने उनके चिंतित चेहरे को देखते हुए कहा।

"क्या बताऊं बाबूजी, सिर पर बेटी की शादी है और मिठाई बनाने के लिए घर में एक दाना शक्कर भी नहीं है,"

"तो कुछ पैसों की मदद चाहिए आपको?" राजू ने पूछा।

"नहीं, मैंने अपनी परिस्थिति पहले ही लड़के वालों को बता दी थी और उन्हें सिर्फ बहू के रूप में मेरी बेटी चाहिए। लेकिन उनकी एक शर्त थी की बारात का स्वागत अच्छा होना चाहिए, अब आप ही बताइए बिना मिठाई के भोजन कैसे पूर्ण होगा।"

"बात तो सही है, लेकिन आप बताइए मैं क्या मदद कर सकता हूँ?" राजू ने शांत स्वर में कहा।

"सरकार की तरफ से गांव वालों में बांटने के लिए शक्कर आई है क्या?" भाईराम ने कहा।

"हाँ, आयी तो है दो बोरियां, पर मैनेजर सर से पूछना होगा" राजू ने सोचते हुए कहा, "एक काम करो, मेरे बैंक पहुंचने के थोड़ी देर बाद आओ और सर से आप खुद ही पूछ लेना।"

भाईराम ने सिर हिलाया और राजू बैंक की तरफ चल दिया।

पूरे गांव में सिर्फ बैंक की ही पक्की इमारत थीं बाकी सारे घर गोबर और मिट्टी से बने थे, पर बैंक की छत पतरे की थी। बैंक में दो कमरे थे, एक में ऑफिस था और दूसरे में गोडाउन था। ऑफिस में दो पुराने टेबल और ४ लोहे के पाइप वाली नायलॉन की रस्सी से बूनी कुर्सियां रखी थी।

राजू ने ऑफिस में प्रवेश किया और मैनेजर सर को नमस्ते करने के बाद टेबल के पीछे अपनी कुर्सी पर बैठ गया। मैनेजर का नाम विनोद था और वो मध्यम कद का, सांवला व्यक्ति था। उसके चेहरे पर हमेशा गंभीर भाव रहते थे जिसे देखकर राजू को ऐसे लगता था कि पता नहीं वो आखिरी बार कब हँसे होंगे।

ऑफिस के चपरासी का नाम राकेश था, वो गांव का ही एक लड़का था जिसकी ऊंचाई मध्यम थी और शरीर दुबला–पतला था। वो दीवार पर बनी अलमारी में फाईलें जमा रहा था।

थोड़ी देर बाद भाईराम अंदर आया और विनोद के सामने जमीन पर बैठ गया, तब विनोद अपने सामने टेबल पर रखे रजिस्टर में लिख रहा था।

"नमस्ते मैनेजर साब," भाईराम ने कहा पर विनोद ने कोई जवाब नहीं दिया और अपना सिर झुकाए रजिस्टर में लिखना जारी रखा।

"नमस्ते साब," भाईराम ने फिर से और थोड़ी जोर से कहा। लेकिन विनोद ने फिर नजरअंदाज कर दिया।

"सर!" राजू ने कड़क आवाज में कहा और विनोद ने सिर उठाकर सामने देखा।

"हाँ बोलो," विनोद ने कहा।

"साब, मेरी बेटी की शादी की मिठाई बनाना है, तो अगर सरकारी शक्कर मिल जाती तो अच्छा होता," भाईराम ने हाथ जोड़ते हुए विनम्रता से कहा।

"अभी तो शक्कर नहीं आयी है, और तुम लोगों के हिसाब से मैं शक्कर नहीं बाँट सकता," विनोद ने झल्लाकर कहा, "आज तुम्हारी बेटी की शादी के लिए मिठाई बनाना है, कल किसी के घर मेहमान आएंगे तो चाय बनाना होगी, ऐसे क्या मैं एक–एक दो–दो मुट्ठी शक्कर बाँटते फिरु!"

"लेकिन, बाबूजी ने तो–" भाईराम ने राजू की तरफ देखते हुए धीरे से कहा और राजू ने हल्के से सिर हिलाया तो बीच में ही रुक गया।

"बाबूजी ने क्या?" विनोद ने त्यौरी चढ़ाते हुए पूछा।

"कुछ नहीं साब," भाईराम ने सिर हिलाया।

"जाओ फिर यहाँ से, जब शक्कर आएगी तब बाँट दी जाएगी" विनोद ने तेज आवाज में कहा और भाईराम वहाँ से चला गया।

अगले आधे घंटे विनोद अपने काम में मग्न था और राजू अपने काम पर ध्यान केंद्रित करने की कोशिश कर रहा था लेकिन बार–बार उसके मन में एक ही सवाल उठ रहा था की जब सरकारी शक्कर आ चुकी है तो मैनेजर सर बाँट क्यों नहीं रहे है। 

"सर, एक सवाल था," कुछ मिनटों बाद जब रहा नहीं गया तो राजू ने आखिर अपनी चुप्पी तोड़ी।

"हाँ बोलो।"

"गोडाउन में तो दो बोरी शक्कर है तो आप ने भाईराम भाई को मना क्यों किया?" राजू ने पूछा।

"तुमने भाईराम को बता दिया था, है ना? इसलिए वो तुम्हारा नाम ले रहा था," विनोद ने त्योरी चढ़ाते हुए कहा।

"हाँ" राजू ने स्वीकार कर लिया क्योंकि अब झूठ से कोई फायदा नहीं था।

"तुम्हे क्या लगता है दो बोरी शक्कर पूरे गांव के लिए काफी होगी?" विनोद ने भौंहे उचकाते हुए कहा, "और जिन गांव वालों की तरफदारी करके तुम मुझसे सवाल कर रहे हो, यही गांव वाले शक्कर खत्म होने के बाद हल्ला करने लगेंगे और हम पर ही सरकारी शक्कर हड़प करने का आरोप लगाएंगे।"

"लेकिन सर!"

"बस मुझे अब इस बारे में और बात नहीं करना" विनोद ने अपनी हथेली दिखाते हुए कहा, "और ये जानकारी आज ही पूरी हो जाना चाहिए ब्रांच मैनेजर कभी भी ऑडिट के लिए आ सकते है।"

"जी सर," राजू ने कहा और अपने काम में लग गया।


शाम ५ बजे


विनोद को जल्दी घर जाना था और जैसे ही उसने देखा की राजू की जानकारी लगभग पूरी हो चुकी है उसने अपनी जानकारी भी राजू को भरने के लिए दे दी और वहाँ से अपने घर के लिए निकल गया, उसका घर भी बुरहानपुर में था। राजू ने अपना काम पूरा किया और विनोद का रजिस्टर देखने लगा जिसमे काफी काम बाकी था इसलिए उसने रात गांव में ही रुकने का निर्णय लिया। 

खाने के बाद से लगातार बैठे–बैठे काम करने से उसकी पीठ दुखने लगी थी, तो उसने राकेश से कहा, "मैं जरा गांव का एक चक्कर मार के आता हूँ।"

"जी सर!" राकेश ने बोला।

राजू बैंक से निकला और सीधा भाईराम के घर की तरफ चलने लगा। गांव में लगभग ५० घर थे और उनके बीच छोटी–छोटी गलियां थी। भाईराम का घर बैंक के रास्ते से सबसे पहले आता था, बाकी घरों की तरह मिट्टी गोबर से बना और कवेलू की छत वाला। उसके घर के बगल में एक बाड़ा था, जहाँ २ गाएं बंधी थी।

"अरे बाबूजी आप! आइए ना," भाईराम ने कहा जैसे ही उसने दरवाजे पर राजू को देखा।

"आप बाहर आ जाओ अच्छी हवा चल रही है, बाहर ही बैठते है," राजू ने कहा।

भाईराम चटाई लेकर बाहर आया और आंगन में चटाई बिछाकर दोनों बैठ गए।

"बाबूजी, मेरे जाने के बाद मैनेजर साब ने कुछ कहा सरकारी शक्कर के बारे में?"

"हाँ" राजू ने सुबह की सारी बात भाईराम को बताई।

"बाबूजी आप मेरे लिए अपने मैनेजर से भिड़ गए यही मेरे लिए बहुत है," भाईराम ने हाथ जोड़ते हुए कहा, "आप एक ही महीने में इतने अपने बन गए, और मैनेजर साब को दो साल हो गए और वो अभी तक ढंग से हमारे नाम तक नहीं जानते।"

"वो तो उनका स्वभाव ही कुछ ऐसा है," राजू ने कहा।

"आपका मतलब खडूस है," भाईराम ने हँसते हुए कहा और राजू भी शामिल हो गया। 

"अरे चाय बनने में कितना टाइम लगेगा," भाईराम ने घर की चौखट की तरफ चिल्लाते हुए कहा और फिर राजू की तरफ मुड़कर पूछा, "बाबूजी, गुड़ की चाय पीते हो ना?"

"हाँ चलेगी, कई बार मेरे दादाजी के साथ भी पी है मैंने, उन्हें बहुत पसंद है," राजू ने मुस्कुराते हुए कहा।

तभी अंदर से भाईराम की बड़ी बेटी, बिंदिया, दो कप चाय लेकर बाहर आई।

"बाबूजी, ये है हमारी बड़ी बिटिया बिंदिया जिसकी शादी होने वाली है," भाईराम ने अपनी बेटी से कप लेकर राजू को देते हुए और मुस्कुराते हुए कहा, और बिंदिया शर्मा कर अंदर चली गई।

"इसे तो अच्छा परिवार मिल गया, अब बस ईश्वर की कृपा से बाकी दो बेटियों का ब्याह भी अच्छी जगह हो जाए," भाईराम ने कहा और राजू को किसी सोच में खोया देख पूछा, "क्या हुआ बाबूजी?"

'गोडाउन में शक्कर रखी है जो तुम्हारे हक की है फिर भी मैं तुम्हारी मदद नहीं कर सकता," राजू ने निराशा से कहा।

"बाबूजी, मैं जानता हूँ की अगर आपके बस में होता तो आप एक पल की भी देरी नहीं करते मदद करने में," भाईराम ने कहा, "ये तो मैनेजर साब के हाथ में है जिन्होंने पिछले पांच महीनों से शक्कर नही बांटी, मुझे तो उनकी नियत में ही खोट लगता है।"

"ऐसी बात नही है मैने बताया ना, उन्हें लगता है शक्कर कम पड़ने पर गांव वाले हंगामा करने लगेंगे।"

"ये सब बहाने है, जिसकी देने की नियत होती है ना वो कोई न कोई रास्ता ढूंढ ही लेता है," भाईराम ने कहा, "आप मेरी चिंता मत कीजिए, मैं कुछ व्यवस्था कर लूंगा।"

"ठीक है फिर भी कोई मदद लगे तो बताना," राजू ने चटाई से उठते हुए कहा।

"ठीक है बाबूजी," भाईराम ने कहा, और राजू वापस बैंक की ओर चल दिया।

देर शाम हो गई थी और अंधेरा होने लगा था, भाईराम भाई से बात करने में एक घंटा कब बीत गया पता ही नहीं चला। राजू पूरे रास्ते भाईराम की बात पर विचार कर रहा था की क्या सच में मैनेजर सर कुछ गड़बड़ कर रहे है, लेकिन फिर उसे मैनेजर की बात भी सही लग रही थी की शक्कर पर्याप्त नहीं है और वो जानता था की सरकारी काम कैसे होते है तो हो सकता है की पांच महीनों से शक्कर आई ही ना हो। जैसे ही राजू बैंक के पास पहुंचा उसे पगडंडी वाले रास्ते पर बैंक का चपरासी राकेश शक्कर की बोरी लादे सड़क की ओर जाते दिखा।

"राकेश रुको!" राजू चिल्लाया और दौड़कर उसके पास गया, "ये बोरी कहा ले जा रहे हो?"

"मैनेजर सर ने जाते समय बोला था कि बुरहानपुर की बस में रखवा देना," राकेश ने बोरी नीचे रखते हुए कहा।

"लेकिन सर ने मुझे तो कुछ भी नहीं कहा," राजू ने धीरे से कहा, जैसे खुद से ही बात करते हुए और सोचने लगा की क्या कारण हो सकता है शक्कर की बोरियों को बुरहानपुर ले जाने का वो भी शाम के समय में। फिर उसे भाईराम भाई की बात याद आई की पिछले पांच महीने से शक्कर का वितरण नहीं हुआ है और समझ आ गया की मैनेजर सर कुछ तो गड़बड़ कर रहे है।

"मैं ये बोरियां ले जाने नहीं दे सकता, इसे वापस गोडाउन में रख दो," राजू ने कड़क आवाज में कहा।

"लेकिन मैनेजर सर से क्या कहूंगा?" राकेश ने घबराते हुए पूछा।

"वो मैं देख लूंगा," राजू ने गहरी सांस ली, उसने सोच लिया था की कल क्या करना है।

राकेश पीठ पर बोरी लादे बैंक की ओर चल दिया।



अगले दिन सुबह राजू ने सभी गांव वालों को बैंक के सामने इकट्ठा कर लिया। बैंक के बाहर एक टेबल पर तराजू, बांट और एक रजिस्टर रखा था।

"अभी सरकार की तरफ से दो बोरी शक्कर ही आई है, तो मैं आप सभी को बराबरी से २ किलो शक्कर बांट रहा हूँ," राजू ने ऊंची आवाज में कहा, "सभी लाइन में खड़े हो जाओ।"

"हम कैसे मान ले की दो बोरी ही शक्कर आई है मुझे तो मेरे हक की पूरी पांच किलो शक्कर चाहिए," एक दुबले पतले और लगभग राजू की उम्र के लड़के, विशाल, ने गुस्से में कहा और सारे गांव वाले उसकी तरफ देखने लगे।

"तुम खुद गोडाउन में जाके देख लो" राजू ने कहा।

"आप थोड़े ही गोडाउन में रखोगे बाकी की शक्कर, आप ले गए होंगे अपने शहर" विशाल ने त्योरी चढ़ाते हुए कहा।

"अगर मुझे शक्कर लेके जाना ही होती तो मैं दो बोरियाँ भी क्यों छोड़ता," राजू ने गुस्से को नियंत्रित करते हुए कहा, "वैसे भी मुझे किसी ने कहा है की जिसकी नियत देने की होती है वो कोई न कोई रास्ता ढूंढ ही लेता है।" राजू ने मुस्कुराते हुए भाईराम की तरफ देखा और फिर विशाल की तरफ देखकर बोला, ‘फिर भी अगर तुम्हे पूरी पांच किलो चाहिए तो लाइन में से हट जाओ और मैनेजर सर से बात कर लेना।"

मैनेजर साहब का नाम सुनते ही विशाल चुपचाप लाइन में लग गया।

राजू ने अभी शक्कर बांटना शुरू ही की थी की सामने पगडंडी वाले रास्ते से विनोद तमतमाते हुए आता दिखा, वो पहले ही कल शाम को शक्कर न मिलने से गुस्से में था और अब बैंक के सामने शक्कर बटती देख उसका पारा और चढ़ गया।

मैनेजर साहब राजू के पास जाकर तेज आवाज में बोले, "तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई मेरी परमिशन के बिना शक्कर बांटने की?"

सभी गांव वाले अपनी मुठ्ठी कसे गुस्से से विनोद को देखने लगे।

"सर, आपने ही तो कल कहा था की कम शक्कर मिलने पर गांव वाले हंगामा करने लगेंगे, इसलिए आप शक्कर नहीं बांट रहे हो," राजू ने संयमित आवाज में कहा, "मैंने इन सभी को समझा दिया है की अभी दो बोरी ही शक्कर है जब फिर से आएगी तब और बांट देंगे और किसी को कोई आपत्ति नहीं है।"

"तुम खुद को ज्यादा होशियार समझते हो," विनोद ने झल्लाकर कहा, "क्लर्क हो तो क्लर्क के जूते में ही रहो, मेरे काम में टांग मत अड़ाओ वरना–"

"वरना क्या करोगे?" गोडाउन से एक कड़क आवाज आई और फिर एक लंबे कद के और मोटी मूछों वाले व्यक्ति बाहर आए। वे किसी बड़े ऑफिसर की तरह शर्ट पैंट पहने थे।

"स–सर आप… आप कब आए?" विनोद ने हिचकिचाते हुए कहा, और बात को बदलने का प्रयास किया, लेकिन ब्रांच मैनेजर सर के चेहरे पर अभी भी गुस्सा था तो विनोद ने कहा, "मैं तो राजू को समझा रहा था की शक्कर वितरण के लिए एक प्रक्रिया का पालन करना होता है ऐसे ही नहीं बांट सकते।"

"हाँ और उस प्रक्रिया के अनुसार पहले शक्कर की बोरियों को बुरहानपुर की बस में तुम्हारे घर पहुंचना होता है, है ना?" अफसर ने भौंहे चढ़ाते हुए कहा। सुबह सरप्राइज ऑडिट के लिए जब ब्रांच मैनेजर बैंक आए तो राजू ने उन्हें सारी बात बता दी थी।

विनोद के चेहरे का रंग उड़ गया और उसकी जुबान फिर से लड़खड़ाने लगी, "व–वो तो मुझे दूसरी शाखा से ऑर्डर आया था।"

"किस शाखा से?"

"ख–खकनार"

"खकनार तो पास में ही है, उसके लिए शक्कर बुरहानपुर क्यों ले जा रहे थे?" अफसर ने पूछा और विनोद नीचे देखने लगा, उसके पास कोई जवाब नहीं था, "जब तुम्हारी ही शाखा में पिछले पांच महीनों से शक्कर का वितरण नहीं हुआ है तो तुम्हे मना कर देना चाहिए था दूसरी शाखा को।"

विनोद की खामोशी ने सारे जवाब दे दिए थे।

"इसे मैं तुम्हारी पहली गलती मानकर तुम्हें सस्पेंड नहीं कर रहा हूँ, लेकिन तुम अब इस शाखा में काम नहीं करोगे और नई शाखा में नियुक्ति तक बुरहानपुर शाखा में ज्वाइन करोगे," ब्रांच मैनेजर ने कुछ देर की शांति के बाद कहा, "एक बात और गांव वालों के हिस्से की बाकी की शक्कर तुम्हारे वेतन में से काट कर दी जाएगी, अब तुम जा सकते हो।"

विनोद का चेहरा पूरी तरह से लाल हो गया था, उसने गुस्से से राजू की तरफ घूरा और फिर तेजी से वहाँ से चला गया।

"राजू, तुम्हारे जैसे ईमानदार और होनहार युवाओं की बैंक को सख्त आवश्यकता है," अफसर ने राजू की पीठ थपथपाते हुए कहा,

"जब तक नए मैनेजर की नियुक्ति नहीं होती यहाँ का कार्यभार तुम देखोगे और सीधे मुझे रिपोर्ट करोगे।"

"जी सर!" राजू ने आत्मविश्वास भरी आवाज में कहा और गांव वालों ने राजू के लिए तालियाँ बजाई, उस दिन से खेड़गांव में उसका सम्मान और बढ़ गया।


By Sagar Paliwal

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