By Pallav Baruah
अनोखा फेंका, हौवा का झोंका,
जो तू रोका-टोका, सोच अकेलों का।
ऐसा मुक्का ठोका, देख के मौका,
जैसे भूखा बैठा कोई सदियों का।
कैसे रुका, झुका, देख तेरी आँखें,
कैसे ठुंका, थका, देख हरकतें तेरी।
लुका-छुपी कर रही मुट्ठी तेरी,
लूट चुकी फ़ालतू की दादागिरी।
ओह, ओह, ओह, ओह।
चल हट, झटपट, फट, फट मत कट,
लथपथ घूसों के जख़्मों से।
चल फ़ुट, एक जुट, इज़्ज़त वजूद तेरी,
जूतों के नीचे रखूं शौक़ से।
ओह, ओह, ओह, ओह।
साम, दाम, दंड, भेद, मुक्केबाज़ी मुठभेड़,
तन-मन के है मेल, पग-पग का है खेल।
मैं भी झेलूं, तू भी झेल, बच-बच कर पेल।
ताल रखे चाल-चाल, सर घूमे तो तू संभल।
एक भूल तू समझ, धूल छांटेगा तू बस।
फँस जाएगा तू मेरे मुक्के-मुक्केबाज़ी में,
फांस में, लाज में, त्रास में, उदासी में।
हाँ, मेरे मुक्केबाज़ी में।
हालांकि,
एक नहीं अनेक हैं तरीके जीतने के पर।
थर-थर कांपें तेरे सर के, धर के रग।
क्षण-क्षण गिनें तेरी सांसें, सांसों को थाम
लड़-लड़, तू बढ़ते-चढ़ते उसे धर-धर।
उसके शिकस्त पे तू चढ़-चढ़।
घड़ी के कांटे भी अब दर पर,
खट-खट कर-कर कुछ पल
बस और...
By Pallav Baruah
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