By डॉ आर्जव जैन धवल
फिर वो मेरे साथ खाने पर गई......
काफी मना करने के बाद काफी, जद्दो-जहद के बाद उसने आखिर हाँ कर दी।
शायद वो मेरी सब्र की परीक्षा ले रही थी या खुद असमंजस में थी वो ही जाने, अब मैं सोचता हूँ के क्या होता अगर वह पहली ही बार में हाँ कर देती। उसे मनाने की मेरी सारी मेहनत बच जाती? या फिर उसे और भी करीब से जानने के मेरे सारी अवसर खो जाते?
खैर पूनम की शाम को जब सूरज ढल कर आकाश को केसरिया कर रहा था, वह लाल रंग के टॉप में मेरे सामने बैठी थी,
उसे उस लाल लिबास में लिपटी देख मैंने अनुमान लगा लिया की वह शादी के उस जोड़े में क्या कयामत बरपाएगी। एक अप्सरा जिसकी इबादत खुद खुदा करता है।
हम हवा महल के सामने बैठे, मेरे सामने एक तरफ हवामहल था तो दूसरी और वो, आज पहली दफा मुझे हवामहल की खूबसूरती फीकी पड़ती दिखी, उसके चेहरे पर ढलते सूरज की वह धूप पड रही थी जो उसे और भी आकर्षक बना रही थी, मानो सूरज भी आज मेरे इश्क़ की, मेरे शब्दों की, मेरे जज़्बातो की परीक्षा लेने को तत्पर हो, वो उसे हर ढलते क्षण अपनी लालिमा दे कर और भी आकर्षक बना रहा था, मानो वह समस्त गुलाबी नगरी को कह रहा था के देखो तुम्हारी सुंदरता कैसे इस अप्सरा के सामने महज़ टेसू के फूल के भांति फीकी पड़ रही है, और यह हर ढलते क्षण और भी खूबसूरत होती जा रही है।
उसके होठो की लाली, उसकी बाह बेपरवाह हँसी, और इन सब के बीच आकर्षण का केंद्र उसकी थोड़ी पर वह तिल जो उसे और भी खूबसूरत बना रहा था।
मैं जानता था के आज पूनम है, आज चंद मेरी परीक्षा लेने अपनी समस्त चाँदनी मेरी चाँदनी पर डाल देगा और चांद की चाँदनी पा वह मेरी आँखों को चकाचौंध कर देगी।
मैं उसे देख ही रह था के तभी उसकी नज़र मुझ पर पड़ी उसे ऐसे निहारते हुए, मुझे रिझाते हुए उसने अपने बालों को अपनी गर्दन से हटाते हुए अपने कंधे पर एक तरफ कर दिया और पीछे देखने लगी मानो वह कह रही हो, "यही थी न तुम्हारी रचनाओं की चाहत, मुझे अपने बाल सवारते देखना, अब बताओ कौन ज्यादा खूबसूरत है मै या यह शहर"
तभी चाँद इस तस्वीर में आता है और मेरी छेड लेते हुए अपने चाँदनी मेरी चाँदनी पर दाल खुद को फीका कर देता है, अब मेरे लिए चयन आसान था उसके उस चाँदनी रात को रोशनी देते चहरे से इस फीके पड़ चुके शहर की क्या ही तुलना करता मैं, चाँद भी उसकी उन छोटी सी पर खूबसूरत, हल्की कत्थई आँखों में जगह बनाने की जद्दोजहद में लगा हुआ था, लेकिन उन आँखों मे सिर्फ और सिर्फ मैं था, हम दोनों यूँ ही बैठे एक दूसरे को निहार रहे थे, मैं उसे अपनी रचना में कही किसी काल्पनि स्त्री से कही दफा ज्यादा खूबसूरत पा रहा था, उस शांति में मैं उसकी साँसों की आवाज़ सुन पा रहा था और वो मेरे उस तेज़ी से धड़कते दिल की...
कहने को हम दोनों के बीच करीब घंटो से कोई संवाद नही हुआ, लेकिन हमारे बीच एक धारा बह रही थी, एक धारा प्रेम की, वात्सल्य की, आश्चर्य की, भावनाओ की। एक धारा जो मेरे उन तमाम सवालो का जवाब दे रही थी, एक धारा जो हमारे बीच एक संवाद कर रही थी, एक संवाद जो हज़ारो शब्दो से भी नही किया जा सकता, एक संवाद भावनाओ का, जो कई हज़ार शब्दो से भी ऊपर है।
By डॉ आर्जव जैन धवल
Deep and thoughtful