By Kamlesh Sanjida
देखकर मजबूरियां मेरी,
लोगों की नज़रें गढ़ गईं
मुसीबतों की क्या कहूँ मैं,
रोज रोज ही तो बढ़ गईं ।
किसको समझाऊँ अब क्या,
समझ ही न सकी कुछ
लोगों की सोच कैसी कैसी,
मेरे लिए ही बढ़ गईं ।
अकेले निकलना भी सड़क पे,
मेरा तो दूभर हुआ
नज़रें बचाते बचाते भी,
मुशिबतें कुछ तो अड़ गईं।
दर्द कितना तकलीफ़ कितनी,
सीने में सब दबीं दबीं
पूछने की हिमाक़त न करी,
विचार धाराएं सड़ गईं ।
मुख देखा व्यवहार अपनों का,
बदली बदली हैं निगाहें
खाल में लोग मगर फिर भी,
नज़रे ऐसी मुझ पर गढ़ गईं ।
अपनों की फिरती थीं नज़रें,
मौकों के भी फायदे उठाए
दुत्कारा अपनों ने मुझको,
रूहें मेरी तो इतनी डर गईं ।
बता नहीं सकती अंदाज ए बयां,
अब सब कुछ ही बदला
चीरता मर्यादा की चादर,
नियत जैसे उनकीं सड़ गईं ।
साथ था जब वो मेरे,
लोगों की नज़रें थीं झुकीं झुकीं
आज वो जब संग नहीं है,
कैसी तोहमतें मढ़ गईं ।
वो ख़ौफ़ था या इज़्ज़त उनकी,
ये तो मैं समझी ही नहीं
जो भी था बेहतर था मेरा,
अब इज़्ज़तें घट गईं ।
क्या मालूम है किसको,
मेरे संग क्या क्या हुआ
विधवा हूँ मैं तो फिर,
कुरुतियाँ मुझ पर मढ़ गईं ।
मुझको कोई अधिकार नहीं,
जीना तो मजबूरी हुई
पाबंदियों में तो बंधकर,
अब तो जैसे जड़ गईं ।
जिम्मेदारियां मुझपर बहुत,
अकेली हूँ संसार में
ख़ुदा का भी कैसा कहर,
पाबंदियां ओर बढ़ गईं ।
कैसे करूँ क्या करूँ,
कुछ समझ न अब तो आ रहा
बच्चों का पालन पोषण,
सोचें ऐसी दिल में जड़ गईं ।
विधवा का ठप्पा मुझ पे,
कितनी रोकें टोकें हैं
मर्यादा में रहती हूँ ,
तानों में ऐसी गढ़ गईं ।
संजीदा भी न जाने कितनीं,
आईं और फिर चलीं गईं
सुधारने की कोशश में,
लाश बन जमीं में गढ़ गईं ।
By Kamlesh Sanjida
विधवा पर बहरीन कविता
विधवा पर बहरीन कविता