top of page

मैं मन से कितना बेहरा था।

By Aayushi Khandelwal


चट्टानों सी मंजिल को हर

पाकर देखा बस एक पत्थर

कश्ती लेकर पास से गुजरा

हर पत्थर खुदरा गहरा था

वो चमकीली चट्टान हैं कहाँ

ये पत्थर मिथ्या कह रहा था

मैं मन से कितना बहरा था।


ये तारा मेरे हाथ में जो है

दूर ही से दिखता रोशन क्यों हैं

जो पाने की चाह में दौडू फिरू

वो इंतजार में मेरे ठहरा था

आंखें मूंद सोचता गुलाब

और बाग ही में मैं रह रहा था

मैं मन से कितना बहरा था।



मन दर्पण परमार्थ वही है

क्या हे केशव बस बात यही है

भ्रम के धर्म में उलझा था और

संग अधर्म के बह रहा था

अंधे कुल की लाज के खातिर

हरण द्रोपद चीर का सह रहा था

मैं मन से कितना बहरा था।


जिसे चाहते सब वहाँ रहता मैं

आसमां को घर था कहता में

तारा तारा करती दुनिया

में धरती धरती कह रहा था

फिर छूटा आसमां टूटा तारा

हुआ धरती पे गड्ढा गहरा था

मैं मन से कितना बहरा था।


मन को तन से जुदा रखता हूं

बस खुद खुद में खुदा करता हूं

उसने भेजा मुझे जुड़ने को सब से

मैं अपने तक सीमित रह रहा था

भर न पाऊं चाहकर भी अब मैं

हुआ रिश्तों में अंतर गहरा था

मैं मन से कितना बहरा था।


मुझ पर मेरा ही बस पहरा था

मैं मन से कितना बहरा था।


By Aayushi Khandelwal



2 views0 comments

Recent Posts

See All

दरमियान।।...

By Abhimanyu Bakshi ज़िंदगी है फ़ुरसत-ओ-मसरूफ़ियत के दरमियान, मैं खड़ा हूँ तसव्वुर-ओ-असलियत के दरमियान। एक हसरत थी दोनों में राब्ता...

अनंत चक्र

By Shivam Nahar वो थक के रुक के टूट जाए, जब नकारा जाए जीवन में और बांध फूटने दे देह का, जो शांत पड़ा है इस मन में, बस डाल दे हथियार सभी,...

इंतज़ार

By Vanshika Rastogi तुम्हे शायद इतना याद कभी न किया होगा, जितना मैंने इस एक दिन में किया है। तेरी कमी खलेगी इस दिल को, मगर एक आस भी...

Commenti

Valutazione 0 stelle su 5.
Non ci sono ancora valutazioni

Aggiungi una valutazione
bottom of page