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मैं वह नहीं हूँ जो कि मैं समझता हूँ कि मैं हूँ, मैं वह भी नहीं हूँ जो कि तुम समझते हो कि मैं हूँ, मैं वह हूँ जो कि मैं समझता हूँ कि तुम समझते हो कि मैं हूं।

Updated: Jan 18




By Ayush Sharma


   "मैं कौन हूँ?” यह प्रश्न लगभग हर उस व्यक्ति के मन में गूँजता है जो स्वयं के अस्तित्व, उद्देश्य व अर्थ को जानने की इच्छा रखता है। सत्य और भ्रम की सीमा पर खड़ा हर इंसान इस प्रश्न के बारे में सोचता है। यह प्रश्न उस अनिश्चितता को प्रकट करता है जो हमारी आत्म-धारणा को घेरे रहती है। इस विचार में, यह गहराई से निहित है कि हमारी पहचान कई स्तरों पर परिभाषित होती है। साथ ही साथ यह हमें अपनी धारणा और दूसरों के दृष्टिकोण के बीच के जटिल संबंधों को समझने का अवसर प्रदान करता है। क्या हमारी पहचान हमारे स्वयं के विचारों की अभिव्यक्ति है, या यह समाज का प्रक्षेपण है? क्या आप जानते हैं कि आप वास्तव में कौन हैं? क्या आप अपने बारे में जो सोचते हैं, वह सच है? और जो लोग आपको देखते हैं, क्या वे आपकी वास्तविक पहचान समझ पाते हैं? ऐसे ही कई प्रश्न हैं जो हमारे जीवन को गहराई से प्रभावित करते हैं । अतः इनका विश्लेषण करना आवश्यक हो जाता है । 


      “मैं कौन हूँ” इस प्रश्न को दो दृष्टिकोणों से देखा जा सकता है इनमें से पहला दृष्टिकोण है आध्यात्मिक व दार्शनिक दृष्टिकोण और दूसरा है ‘स्वयं की छवि’ (self image) का निर्धारण करने का दृष्टिकोण । आध्यात्मिक व दार्शनिक दृष्टिकोण के अनुसार यह प्रश्न स्वयं के भीतर अर्थात् आत्म की खोज की माँग करता है वहीं स्वयं की छवि का निर्धारण अपेक्षाकृत अधिक बाहरी विषय है। स्वयं की छवि वास्तव में एक परिवर्तनशील अवधारणा है जो कभी स्थायी नहीं होती व परत दर परत सतत रूप से चलती रहती है। प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक ‘सिग्मंड फ्रायड’ मानते हैं कि "सेल्फ" अचेतन, चेतन और पूर्वचेतन के बीच निरंतर विकासशील है। इसके अलावा ‘एरिक एरिक्सन’ भी मानते हैं कि जीवन के विभिन्न चरणों में व्यक्ति की पहचान बदलती रहती है। ऐसा इसलिए है क्योंकि हमारी पहचान परिस्थितियों, अनुभवों और दूसरों की धारणाओं से प्रभावित होती है । परिस्थिति आधारित परिवर्तन का एक उदाहरण तब देखने को मिलता है जब एक शांत व्यक्ति विपरीत परिस्थितियों में आक्रामक हो जाता है। जीवन के अनुभव जैसे - नई जिम्मेदारियाँ, सफलताएँ, या असफलताएँ व्यक्ति की आत्म-धारणा को बदल सकती हैं। समय के साथ समाज व संस्कृति की बदलती मान्यताएँ और विचारधाराएँ भी हमारी स्वयं की छवि को प्रभावित करती हैं। उदाहरण के लिए एक समय में रूढ़िवादी विचारधारा वाले व्यक्ति समाज की प्रगतिशीलता के साथ बदल सकते हैं। लेकिन हमारी पहचान या स्वयं की छवि का एक पहलू ऐसा भी होता है जो हमेशा स्थायी ही बना रहता है क्योंकि यह पहलू परिस्थितियों और बाहरी प्रभावों से अप्रभावित रहता है जैसे, किसी का स्वाभाविक प्रेमपूर्ण, करुणामय, या साहसी होना। हमारा डीएनए और कुछ स्थायी शारीरिक विशेषताएँ जिनके कारण हमारे स्वभाव का कुछ हिस्सा बनता है और अंततः यही हमारी आत्म-छवि में भी शामिल हो जाता है । इसके अलावा हमारी परंपराएँ, मूल्य, और नैतिक सिद्धांत जो कि अधिकतर स्थायी होते हैं, भी हमारी आत्म-छवि (self image) का निर्धारण करते हैं। इसके अलावा अंततः हमारी आत्मा और चेतना का अस्तित्व स्थायी और अचल माना जाता है जो हमारे स्वभाव का मूल है। इस प्रकार हमारी पहचान न तो पूरी तरह स्थायी है और न ही पूरी तरह बदलने वाली। यह एक बहुआयामी प्रक्रिया है जिसमें हमारा मूल स्वभाव, समाज की अपेक्षाएँ, और हमारी अपनी सोच मिलकर हमारी छवि को गढ़ते हैं।

          अब प्रश्न यह उठता है कि हमारी आत्म - छवि का निर्माण कैसे होता है ? हमारी आत्म - छवि का निर्माण दरअसल इस बात से होता है कि हमने जीवन में अभी तक आने वाली कठिन परिस्थितियों को किस प्रकार संभाला है व सरल परिस्थितियों में हमारा व्यवहार कैसा रहा है। जिस प्रकार बैंक हमारी साख का निर्धारण हमारे पिछले बैंकिंग व्यवहार के आधार पर निर्धारित करते हैं उसी प्रकार हमारी आत्म - छवि का निर्धारण भी हमारे पिछले व्यवहार के आधार पर ही निर्धारित होता है ।  इस प्रकार हमारे व्यक्तिगत अनुभव, व्यवहार व हमारे मूल्य ही प्रमुख रूप से हमारी आत्म - छवि का निर्धारण करते हैं। हमारी सफलता और असफलताएँ हमारी आत्म-छवि को गहराई से प्रभावित करती हैं। उदाहरण के लिए, एक विद्यार्थी जो बार-बार असफल होता है, वह खुद को 'अक्षम' मानने लग सकता है। इसके अलावा समाज की अपेक्षाएँ और सांस्कृतिक मूल्य हमारी छवि को प्रभावित करते हैं। उदाहरण के लिए, समाज में सुंदरता के मापदंडों के कारण व्यक्ति अपनी शारीरिक छवि को लेकर असुरक्षित महसूस कर सकता है। यही नहीं हमारी आत्म-छवि हमारी नैतिकता और विश्वासों से भी बनती है । जो लोग खुद को नैतिक और ईमानदार मानते हैं, उनकी आत्म-छवि मजबूत और स्थिर होती है । इसके अलावा सोशल मीडिया, विज्ञापन, पुस्तकें और फिल्मों में दिखाए गए आदर्श रूप और सफलताएँ हमारी छवि को प्रभावित करते हैं। इसके अतिरिक्त हमारा ज्ञान, पद, प्रतिष्ठा, धार्मिक मान्यताएँ आदि भी हमारी आत्म-छवि को गहराई से प्रभावित करती हैं । 


         अब अगला मुद्दा यह उठता है कि हम हमारी आत्म - छवि का निर्धारण या आकलन किस प्रकार करते हैं ? यह प्रश्न जितना सरल दिखता है उतना सरल है नहीं क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति का आत्म - छवि निर्धारित करने का दृष्टिकोण अलग-अलग हो सकता है। कोई व्यक्ति स्वयं अपने बारे में यह मान सकता है कि मेरी आत्म - छवि बहुत अच्छी है जबकि वास्तविकता इससे सर्वथा भिन्न हो सकती है और यह वास्तव में आत्म - छवि निर्धारण का सबसे प्रचलित तरीका है। लेकिन यह तरीका पूर्णतः गलत है क्योंकि हम स्वयं के दृष्टिकोण और आत्म-विश्लेषण के बारे में अक्सर पक्षपाती होकर ही निर्णय लेते हैं जिससे हम वास्तविक रूप से यह जान ही नहीं सकते कि हम वास्तव में क्या हैं। हम अपनी क्षमताओं, सीमाओं, और दोषों को हमेशा स्पष्ट रूप से नहीं देख पाते व अपने बारे में वही सोचते हैं, जो हमारे अनुभव, इच्छाएँ, और भावनाएँ हमें दिखाती हैं। जैसे, कोई व्यक्ति अपनी असफलताओं को नज़रअंदाज़ करके केवल अपनी सफलताओं पर ध्यान केंद्रित कर सकता है और अपना आकलन कर सकता है । इसके अलावा जब हम स्वयं की छवि का निर्धारण अपने ही आकलन के आधार पर करते हैं तो हम एक दूसरे पक्ष को छोड़ देते हैं और वह पक्ष है - अन्य व्यक्तियों व समाज का पक्ष । अगर व्यक्ति यह कहे कि "मैं वही हूं जो मैं समझता हूं," तो वह समाज में अपने व्यवहार के प्रभावों को अनदेखा कर रहा है। उदाहरण के लिए, यदि एक व्यक्ति खुद को दयालु समझता है लेकिन उसके कार्य दूसरों को नुकसान पहुंचाते हैं, तो उसकी स्वयं के बारे में यह धारणा गलत साबित होती है। फ्रायड के अनुसार, हमारा अवचेतन मन (Unconscious Mind) हमारे विचारों और कार्यों को प्रभावित करता है, जिसे हम कई बार स्वयं नहीं समझ पाते कि कब हम पक्षपाती  हो रहे हैं । इस प्रकार स्वयं को पूरी तरह जानना असंभव सा प्रतीत होता है । अब कोई व्यक्ति जब इस तथ्य को समझ लेगा तो एक व्यक्ति अपने मन में  स्वयं के प्रति दूसरों की सोच का अनुमान लगा कर उसके अनुसार ही व्यवहार करता है हालांकि ऐसे में यह आवश्यक नहीं कि दूसरा व्यक्ति वास्तव में उसकी सोच के अनुसार ही उसे समझे। इस प्रकार वह अपनी आत्म - छवि का निर्धारण इस आधार पर कर सकता है कि दूसरे उसके बारे में क्या सोचते हैं । लेकिन यह तरीका भी पूर्णतः गलत है क्योंकि दूसरों की राय भी पक्षपाती हो सकती है और इसके अलावा वस्तुनिष्ठ रूप से हम यह जान ही नहीं सकते कि अन्य व्यक्ति हमारे बारे में क्या सोचते हैं। 


          अब विचार का मूल मुद्दा यह है कि हमारी आत्म - छवि का निर्धारण या आकलन करने का सही तरीका क्या है । इस संदर्भ में प्रसिद्ध समाजशास्त्री चार्ल्स हटन कूले का वह कथन सही प्रतीत होता है जिसे उन्होंने अपने सिद्धांत ‘लुकिंग ग्लास सेल्फ’(looking glass self) को देते हुए कहा था कि “मैं वह नहीं हूँ जो कि मैं समझता हूँ कि मैं हूँ, मैं वह भी नहीं हूँ जो कि तुम समझते हो कि मैं हूँ, मैं वह हूँ जो कि मैं समझता हूँ कि तुम समझते हो कि मैं हूं।” इस कथन के अनुसार उनका मत था कि अपनी नज़र में मेरी छवि इस आधार पर बनती है कि मुझे दूसरों की निगाह में अपने प्रति कैसा भाव नज़र आता है? अगर मुझे लगता है कि अधिकांश लोग मेरा सम्मान करते हैं तो मेरी नज़रों में भी मेरा सम्मान बढ़ जाएगा और यदि मुझे लगा कि अधिकांश लोग मुझे महत्त्व नहीं देते हैं तो धीरे-धीरे मैं भी खुद को महत्त्वहीन समझने लगूंगा और अल्प-आत्मविश्वास का शिकार हो जाऊंगा। इस कथन को महात्मा गांधी द्वारा बेहतर तरीके से अपनाया गया था । अतः उनके एक उदाहरण में इसे देखा जा सकता है - वर्ष 1943 में गांधीजी आमरण अनशन कर रहे थे। महात्मा गांधी उस समय यह मानते थे कि उनके अनशन से ब्रिटिश सरकार और ब्रिटिश प्रधानमंत्री चर्चिल पर भारत को स्वतंत्र करने का दबाव बढ़ेगा, किंतु वास्तव में चर्चिल को गांधीजी की मृत्यु की जरा भी चिंता नहीं थी । अतः बाद में इस बात का पता चलने पर गांधीजी की सोच बदली और उन्होंने आमरण अनशन को स्वयं ही समाप्त कर दिया। इसी प्रकार हमारी नैतिकता हमारे सामाजिक संबंधों तथा हमारी अभिवृत्तियों से प्रभावित होती है और इन दोनों ही तत्त्वों के निर्धारण में यह बात अत्यंत महत्वपूर्ण है कि हम इस बारे में क्या सोचते हैं कि दूसरे हमारे बारे में क्या सोचते हैं। उदाहरण के लिये  यदि एक व्यक्ति के मन में यह विश्वास हो जाये कि उसके परिवार वाले तथा उसके दोस्त उससे प्रेम करते हैं, भले ही वास्तव में ऐसा ना हो, तो वह खुश रहेगा और उनके प्रति प्रेम तथा नैतिकता की भावना से भरा रहेगा। किंतु यदि अपने अच्छे दोस्तों के प्रति भी उसके मन में शक हो तो वह आसानी से उनके प्रति नैतिक नहीं रह पाएगा। स्पष्ट है कि कुले का यह कथन नैतिकता के महत्त्वपूर्ण निर्धारकों में भी शामिल है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि "मैं वह हूँ जो मैं अपने और समाज के अनुभवों के मिश्रण के आधार पर बनता हूँ।”


         अतः यदि हम आत्म-छवि के निर्माण और कूले के ‘लुकिंग ग्लास सेल्फ’ के प्रभाव को समझने में असफल रहते हैं, तो इसका परिणाम गंभीर हो सकता है। गलत धारणाएं न केवल हमारे आत्म-सम्मान को चोट पहुंचा सकती हैं, बल्कि सामाजिक अव्यवस्था और व्यक्तिगत तनाव का कारण भी बन सकती हैं। आत्म-छवि के आधार पर बनने वाले असुरक्षा भाव और निर्णय समाज में अविश्वास और असहमति को जन्म दे सकते हैं। इसके अलावा, यदि व्यक्ति अपनी पहचान को दूसरों की धारणाओं पर पूरी तरह आधारित करता है, तो वह आत्म-निर्भरता और स्वतंत्र सोच खो सकता है। यह मानसिक और सामाजिक स्वास्थ्य दोनों के लिए हानिकारक है। चार्ल्स हटन कूले का उपर्युक्त कथन एक दर्पण के समान है, जिसमें हमारी आत्म-छवि का प्रतिबिंब झलकता है। "मैं वही हूं जो मैं समझता हूं कि तुम समझते हो कि मैं हूं" एक चुनौतीपूर्ण लेकिन आवश्यक सत्य है। आत्म-छवि का निर्माण केवल हमारे और समाज के बीच संवाद का परिणाम है। यदि इस संवाद को हम समझदारी, सहानुभूति और आत्म-निरीक्षण के साथ आगे बढ़ाते हैं, तो यह हमें न केवल आत्म-ज्ञान देगा, बल्कि समाज में सकारात्मकता और सहिष्णुता को भी बढ़ावा देगा। यह न केवल हमारी व्यक्तिगत यात्रा को सार्थक बनाएगा, बल्कि सामूहिक रूप से मानवता के लिए भी एक नई दिशा स्थापित करेगा। 


By Ayush Sharma




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Vishal Joshi
Vishal Joshi
an hour ago
Rated 5 out of 5 stars.

Very Good Ayush

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somesh joshi
somesh joshi
an hour ago

Very very good ayush

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Santosh Shivhare
Santosh Shivhare
2 hours ago
Rated 5 out of 5 stars.

Very good ayush

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ROHIT HIMKAR
ROHIT HIMKAR
4 hours ago
Rated 5 out of 5 stars.

Very very nice👏

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Nakul Bhadouriya
Nakul Bhadouriya
4 hours ago
Rated 5 out of 5 stars.

Excellent

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