By Neeru Walia
कहने को तो आज हम सभ्य और सुशिक्षित समाज में रहते हैं , फिर भी न जाने क्यों साधन संपन्न होते हुए भी जीवन में अधूरापन सा लगता है? इस खालीपन को चाहे परिवार के साथ हो या समाज में, दिल की गहराइयों से अनुभव किया जा सकता है। स्वस्थ समाज की कल्पना तभी की जा सकती है ,जब जीवन में प्रगति । वैसे तो हर बच्चे का पहला स्कूल उसका घर व पहले शिक्षक उसके माता-पिता होते हैं।बच्चों की परवरिश के साथ-साथ उनमें संस्कारों को विकसित करना भी हर माता-पिता की नैतिक ज़िम्मेदारी होती है। लेकिन आज के परिवेश में वक्त के साथ-साथ लोगों की सोच में भी इस कदर परिवर्तन आया है कि आज के व्यस्त जीवन में माता-पिता दिन-रात कड़ी मेहनत करके बच्चों के उज्ज्वल भविष्य के लिए अपना दायित्व बखूबी निभा रहे हैं, लेकिन समय के अभाव के कारण बच्चों में वे संस्कार विकसित नहीं कर पाते जिसके फलस्वरूप वे सामाजिक मान्यताओं को भूल जाते हैं। इसलिए समाज में हम सबका विशेषकर शिक्षक वर्ग का यह नैतिक कर्त्तव्य है कि ऐसे समाज का निर्माण करें, जहाઁ छात्र नैतिक मूल्यों को अपनाएઁ और संवेदनशील मनुष्य बनें।
बच्चों में सम्मान का भाव इस ढंग से विकसित करें कि वे केवल शिक्षकों माता-पिता व पारिवारिक रिश्तों तक ही सीमित न रहे अपितु वे देश के नियमों और संपदा के प्रति भी आदर भाव रखें और राष्ट्र के प्रति सम्मान का भाव 'मेरे- तेरे' में विभाजित न करके हममें परिभाषित करें। यही हमारी इस भौतिकवादी युग में सबसे बड़ी उपलब्धि होगी। तभी हम सब भारतवासी सुखद व मंगलमयी जीवन की कल्पना को यथार्थ में बदल सकते हैं।
के साथ-साथ मानवीय मूल्यों को भी अपनाया जाए ,लेकिन आधुनिक परिवेश में नैतिक मूल्यों में आई गिरावट वर्तमान की सबसे बड़ी त्रासदी है, जोकि धीरे-धीरे समाज के ताने-बाने को ही खोखला कर रही है।
By Neeru Walia
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