By Kamlesh Sanjida
रोटियाँ यूँ बिख़र कर,
क्या- क्या कह रहीं
ज़िंदगी का राज़,
सब कुछ समझा रहीं ।
तेरी हुई न मेरी,
बस हक़ीक़त दिखला रहीं
बीज भी तो कुछ ऐसे,
तब से ही बो रहीं ।
पीठ पर लदीं थीं,
कुछ को तो दिख रहीं
भूँखे थे पेट फिर भी,
कहाँ किससे खब रहीं ।
संग में थे छोटे बच्चे,
बेरोजगार रोटी हो रहीं
जिंदगी के सफ़र में,
बहुतों को उलझा रहीं ।
मेहनत कशों की भीड़,
कहाँ- कहाँ चल रहीं
नदी समुंदर और जंगल,
बस भीड़ें बढ़ रहीं ।
तलाशीं थी रोटी,
जिन्होंने शहरों में कहीं
बिछड़कर भी अपनों से,
उनकीं रातें रहीं ।
एक अज़ब से दौर में,
ये रोटियाँ चल रहीं
न जाने किस-किस के,
मुँह से अब तो छिन रहीं ।
गरीबों से ही सदा से,
ये तो रुठीं रहीं
मंज़र भी उन्हीं को,
अज़ब से दिखा रहीं ।
नसीब में हैं ये किसके,
किसको मिल रहीं
रेल की पटरियों पर,
कुछ तो हैं कट रहीं ।
संग में थे ख़ून के छींटे,
कुछ लाशें मिल रहीं
पटरियों पर इधर उधर,
ये कैसी बिख़र रहीं ।
लाशें गिन-गिन कर,
फिर इखट्ठी हो रहीं
चीथड़े- चीथड़े होकर,
जाने कैसे कट रहीं ।
दिन के उजाले तो कहीं,
अँधेरे से दिख रहीं
सड़कों के हादसों में भी,
कुछ रोटी मिल रहीं ।
मौत की भी तश्वीरें,
नई- नई सीं लग रहीं
भूँख है कि जिन्दगी पर,
भारी सीं पड़ रहीं ।
गिनती भी रोटियों की,
कम ही तो दिख रहीं
लाशों की भीड़ मे भी,
ख़ून से लतपत दिख रहीं।
हारकर इंसानियत,
फिर कहीं छिप रहीं
कुछ हैं कि अब भी,
लोगों को दिख रहीं ।
जिनकी वजह से ही,
इन्सानियतें बच रहीं
इसी लिए कुछ उम्मीदें,
अब भी तो लग रहीं ।
By Kamlesh Sanjida
रोटियों की दुर्दशा एवं इसान की