By Pallav Baruah
नाव ही नाव हैं, धूप न छांव है,
लहरों की दास्तां तुझको सुनाऊं मैं।
ज्वार सवार मैं आगे बढ़ूं,
वक्त ही भाटा बने।
होशियार, गँवार मैं जो भी बनूं,
सच सन्नाटा बने।
दस बरस हुए घर छोड़े,
जाने-अनजाने, न जाने कितने ही दिल तोड़े?
उन काली-काली ख़ाली रातों में,
तन्हाइयों में छुपकर सपने मैंने संजोए।
अब क्या ही खोए, सब कलम-तलब,
लगे मतलब के पीछे क्यों हाथ धोए?
कोई रोए, कोई सितारों के बीच सोए,
कोई शोहरत के मोटे-मोटे बीज बोए।
मायानगरी की डगरी में खोए मैं देखूं,
यह तट तस से न मस होए।
क्यों आता है मुझको पसंद ये भसड़,
क्या असर है कसर पूरी करने की?
क्यों होती है मुझको चुभन,
जब कांटों पर चलकर क़िस्मत बदलनी थी?
नाव ही नाव हैं, धूप न छांव है,
लहरों की दास्तां तुझको सुनाऊं मैं।
ज्वार सवार मैं आगे बढ़ूं,
वक्त ही भाटा बने।
होशियार, गँवार मैं जो भी बनूं,
सच सन्नाटा बने।
कठपुतली बनकर मैं उंगली नाचूं,
मेरा हो विनाश, फ़िर भी मैं खोजूं।
नोटों की ख़ुशबू और फोटो के बलबूते पहुंचूं,
हाँ, वो मुक़ाम, जिसमें विराज मेरा चक्षु।
मेरे सिर को, घमंड और सुगंध ही जानते हैं।
मेरे मन के टंटे, जो घंटे-घंटे बनते हैं।
मेरा दायाँ भी मेरे बाएँ से डरता है,
सीधे रास्ते पर आज कौन भला चलता है?
ऐसी क्या जल्दी है, क्या पैर फ़िसलते हैं?
क्या आंखें जलती हैं, या वक्त बदलता है?
ये सवाल, साल दर साल मुझे खाए,
क्यों चला यूँ हाल-चाल भुलाए?
यह बला, क्यों भला मुझ पर छाए,
यूँ फ़नाह जो बचपना में हो जाए?
नाव ही नाव हैं, धूप न छांव है,
लहरों की दास्तां तुझको सुनाऊं मैं।
ज्वार सवार मैं आगे बढ़ूं,
वक्त ही भाटा बने।
होशियार, गँवार मैं जो भी बनूं,
सच सन्नाटा बने।
By Pallav Baruah
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