By Jatinder Kaur
पार्क के कोने में
एक बेंच है
अक्सर वहीं बैठे देखा था उसको
अजनबी थी
पर कुछ अपनी सी लगने लगी थी।
खामोश बैठी वो
फूल पत्तों को देखती थी
और मैं उसको देखते
हुए देखता
उसकी आंखों में उतर कर
उसके दिल की गहराइयों
को नापने की
कभी जुर्रत नही हुई
पर उसके माथे की शिकन
अक्सर बहुत गहरी होती थी
हर बार वो अकेली ही आती थी
कुछ घंटे वही बैठे बैठे
जाने क्या पहेली सुलझाती थी
जुल्फे उसके खामोश चेहरे पर
अठखेलियां करती ,
और वो शायद अपने अंदर
उठते तूफानों से
कुछ तो था उसके इस
खामोशी के परदे के पीछे
जो सबसे छिपा था
सबसे अलग था
अपनी खामोशी में वो
पास खड़े पेड़ों को भी मात देती थी
पेड़ हवा से चंद लम्हे
कुछ तो बतलाते थे
पर वो...कभी नही
ये सिलसिला यूं ही चलता रहा
उसको देखना मानो
अब आदत बन गई थी मेरी
उसी साड़ी के रंग भी
याद होने लगे थे मुझे
कभी गुलाबी कभी नारंगी
नीला सा चटकिला कभी
हर रंग उसके सफेद
खालीपन पर कुछ लिखने की
कोशिश करता नजर आता
फिर एक दिन वो सफेद रंग
सब से जीत गया।
पार्क का वो कोना
और उस कोने का वो बेंच
अक्सर वहीं बैठे देखा
By Jatinder Kaur
Comments