By Akshay Sharma
वो जैसे आया था,
वैसा ही रहा
बदला वो नहीं
बदला मैं, और मैं बदलता रहा
वो, जैसा आया था,
वैसा ही रहा।
पहले जब सताता था ख़्याल तो दिन निकला करते थे लड़के, झगड़के
और अब सताना उसका, समझ मुझे आ ही गया।
जैसे हमराही के साथ का खेल -
बोलो कम, सुनो ज़्यादा
न सुनो सब, न बोलो ज़्यादा।
ख़्याल से ब्याह्या...
नई चाल आवारा फैंकता गया, नए तरीक़े मैं अपनाता रहा
बीते कल की ख़ुशबू, बीते कल का रस, चलते गुज़रते दिन में आता रहा।
मैं लिखता चला, “आज में ख़ुशी, आज की लहर”
वो देता गया खोया बचपन, बीता सहर।
ख़्याल से दोस्ती, ख़्याल से ब्याह्या
ब्याह है दोस्ती, ख़्याल ने सिखाया।
“फिर हमसे क्या सीखा और हमसे क्या पाया
लड़े तुम मुझसे थे, ये दुनिया को बताया?
ढांचा बराबर तो जोश बराबर, होश बराबर
यहीं तक सीमित ख़्याल का नक़्शा
यहीं तक क्रमश कल्पना की पकड़
बल अधिबल व्यक्तित्व का प्रदर्शन
सुडौल-शिथिल शरीर के दर्शन, यहीं तक
आत्मा का हक़, वो आत्म विलाप, दुनिया को बताया?”
By Akshay Sharma
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