By Ayush Sharma
जरा कल्पना कीजिए, एक ऐसे समाज की जहाँ कोई व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति की या किसी अन्य प्राणी की पीड़ा महसूस नहीं करता, किसी समस्या को समझने की कोशिश नहीं करता। क्या ऐसे समाज में कला, साहित्य या विज्ञान का कोई सार्थक अस्तित्व होगा? क्या ऐसा समाज सहानुभूति, समानुभूति, करुणा, दया, परोपकार और प्रेम जैसे मूल्यों से युक्त होगा? क्या ऐसे समाज में बेहतर मानवीय सामाजिक संबंधों का कोई अस्तित्व होगा? क्या ऐसे समाज में कोई उत्कृष्ट सामाजिक परिवर्तन संभव होगा? निश्चित ही नहीं क्योंकि संवेदनशीलता ही वह गुण है, जो हमारे जीवन को अर्थपूर्ण बनाता है। यही वह आधार है, जिससे सृजनशीलता, नवप्रवर्तन, और परिवर्तन की शुरुआत होती है। यदि यह गुण समाज में न हो, तो समाज केवल यांत्रिक समाज बन कर रह जाएगा, जिसमें मानवता व इंसानियत का कोई स्थान नहीं होगा।
"संवेदनशीलता" से तात्पर्य, स्वयं की व दूसरों की भावनाओं, समस्याओं और परिस्थितियों को महसूस करते हुए उन्हें समझने व उनका सम्मान करने की क्षमता से है। यहां यह भी ध्यान रखना आवश्यक है कि संवेदनशीलता और भावुकता दोनों ही मनुष्य के भावनात्मक पक्ष से जुड़े हुए हैं, लेकिन इनमें गहरा अंतर है। संवेदनशीलता एक गहन समझ और प्रतिक्रियात्मक क्षमता है, जबकि भावुकता अक्सर अनियंत्रित और असंतुलित भावनाओं का प्रदर्शन होती है। संवेदनशीलता गहन सोच और समाज के प्रति जिम्मेदारी का भाव है, जबकि भावुकता तत्काल और अस्थायी प्रतिक्रियाओं का परिणाम है। संवेदनशीलता मात्र एक भावनात्मक प्रतिक्रिया नहीं है, बल्कि यह सोचने, महसूस करने और स्वप्रेरणा से कार्य करने की एक शैली है और इस पर केवल मानव का ही अधिकार नहीं है बल्कि कुछ जानवरों में भी भावनात्मक संवेदनशीलता देखी जा सकती है। उदाहरण के लिए - कुत्ते और बिल्लियां अपने मालिक की भावनाओं को समझने में सक्षम होते हैं, हाथी अपने समूह के सदस्यों की मृत्यु पर शोक मनाते हैं, डॉल्फिन घायल साथियों की रक्षा करती हैं, बंदर और अन्य प्राइमेट्स भोजन साझा करते हैं और अपने समूह के सदस्यों को संकट से बचाने का प्रयास करते हैं, पक्षी अपने समूह को खतरे की चेतावनी देते हैं। इसके अलावा अधिकांश प्राणी अपनी संतानों के प्रति गहरी संवेदनशीलता और रक्षा का भाव दिखाते हैं। यहाँ तक कि पौधों व प्रकृति में भी हम अन्य कई जगह प्रतिक्रियात्मक संवेदनशीलता देख सकते हैं।
चूँकि कल्पना शक्ति, संवाद करने की क्षमता व सामाजिक संबंध बनाने की क्षमता व्यापक रूप से मानव के पास है अतः संवेदनशीलता के व्यापक परिणाम हमें मानवीय समाज में ही देखने को मिलते हैं। जब व्यक्ति अपने आसपास की समस्याओं को महसूस करता है, तो यही संवेदनशीलता उसे समाधान की ओर ले जाती है और साथ ही साथ उस व्यक्ति को उसी दिशा में कार्य करने के लिए भी स्वप्रेरित करती है। ध्यातव्य है कि मानवीय स्वभाव के अनुसार मानव को कार्य करने के लिए किसी न किसी प्रेरणा की आवश्यकता होती है और यह प्रेरणा या तो आंतरिक होगी या फिर बाह्य होगी । सामान्यतः मानव में सकारात्मक आंतरिक प्रेरणा या स्वप्रेरणा के मूल में संवेदनशीलता ही होती है और यह संवेदनशीलता ही है जो मानव को उसके दूरगामी लक्ष्यों तक पहुंचाने में मदद करती है । इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि संवेदनशीलता व्यक्ति के लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु कभी न खत्म होने वाला “हरित ईंधन” है । संवेदनशीलता वह स्थायी और अक्षय ऊर्जा है जो व्यक्ति को न केवल अपने लक्ष्यों को पहचानने और उन्हें प्राप्त करने में मदद करती है, बल्कि समाज, प्रकृति, और मानवता के लिए भी कुछ सार्थक करने की प्रेरणा देती है। इसे "हरित ईंधन" कहना इस बात पर बल देता है कि यह सकारात्मक, सतत और मानव जीवन के लिए आवश्यक है।
अब प्रश्न यह उठता है कि संवेदनशीलता नवप्रवर्तन या इनोवेशन का आधार कैसे है अर्थात् यह नव प्रवर्तन में कैसे सहायता करती है ? संवेदनशीलता नवप्रवर्तन का आधार बन सकती है क्योंकि यह सोचने, समझने और समस्याओं के समाधान के लिए एक गहरी समझ पैदा करती है। जब हम अपनी और दूसरों की भावनाओं, समस्याओं और परिस्थितियों को समझने में सक्षम होते हैं, तब हम नए दृष्टिकोण, विचार और समाधान उत्पन्न कर सकते हैं। संवेदनशीलता के द्वारा मनुष्य न केवल अपनी वर्तमान स्थिति से प्रभावित होता है, बल्कि वह अपने आस-पास के समाज, पर्यावरण और लोगों की जरूरतों को भी महसूस करता है, जो नवप्रवर्तन की दिशा में उसे प्रेरित करते हैं।
उदाहरण के लिए, मैरी क्यूरी को इस बात की गहरी समझ थी कि रेडियोधर्मिता का उपयोग कैंसर जैसे रोगों के उपचार में किया जा सकता है। उन्होंने महसूस किया कि यदि ऊर्जा का यह स्रोत सही ढंग से नियंत्रित किया जाए, तो यह लाखों लोगों की जान बचा सकता है। यही संवेदनशीलता अंततः रेडियोधर्मिता की खोज का कारण बनी । इसके अलावा प्रथम विश्व युद्ध के समय, घायल सैनिकों को समय पर उपचार न मिलने की समस्या को भी उन्होंने अपनी संवेदनशीलता से गहराई से महसूस किया था और यही कारण था कि उन्होंने विश्व की प्रथम मोबाइल एक्स-रे यूनिट का विकास किया ताकि घायल सैनिकों का तुरंत निदान और उपचार हो सके। मैरी क्यूरी की संवेदनशीलता मात्र उनके व्यक्तिगत कार्यों तक सीमित नहीं थी; यह मानवता और विज्ञान के बीच के गहरे संबंध को समझने और उसे नई दिशा देने का माध्यम थी। यह संवेदनशीलता ही उनके नवप्रवर्तन और योगदानों के मूल में थी।
इसी प्रकार मोहम्मद यूनुस, जो बांग्लादेश के एक प्रसिद्ध अर्थशास्त्री और सामाजिक उद्यमी हैं, ने गरीबी के दुष्चक्र को करीब से देखा। उन्होंने महसूस किया कि गरीबों, विशेषकर ग्रामीण महिलाओं, के पास आर्थिक संसाधनों की भारी कमी है। उनकी संवेदनशीलता ने उन्हें यह समझने में मदद की कि पारंपरिक बैंकिंग व्यवस्था गरीबों के लिए अनुपलब्ध थी। गरीबों को छोटे-छोटे ऋण की आवश्यकता थी, लेकिन गारंटी न होने के कारण बैंक उन्हें ऋण देने से इनकार कर देते थे। इससे गरीब लोग स्थानीय साहूकारों पर निर्भर हो जाते थे, जो ऊँची ब्याज दरों के कारण उनका शोषण करते थे। 1976 में, मोहम्मद यूनुस ने " ग्रामीण बैंक" की नींव रखी, जो एक अभिनव सूक्ष्म वित्त मॉडल पर आधारित था। यह बैंक गरीबों, विशेष रूप से महिलाओं, को बिना गारंटी के छोटे-छोटे ऋण (माइक्रोक्रेडिट) प्रदान करता था। मोहम्मद यूनुस ने समाज की पीड़ा को न केवल महसूस किया, बल्कि उस पर गहराई से विचार करते हुए एक समाधान खोजा। उनका यह नवप्रवर्तन न केवल आर्थिक था, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोण से भी क्रांतिकारी साबित हुआ।
इसके अलावा चिपको आंदोलन पर्यावरण के क्षेत्र में नवप्रवर्तन का एक ऐसा अनोखा उदाहरण है जहां मानव (जो कि चेतन प्राणी है) द्वारा पेड़ों (जो कि एक अर्थ में जड़ हैं) के प्रति इतनी अधिक संवेदनशीलता व्यक्त की गई कि वह पेड़ों के लिए अपना जीवन तक का त्याग करने को तत्पर हो गया । चिपको आंदोलन ने पर्यावरण संरक्षण को केवल सरकार की जिम्मेदारी न मानकर इसे आम जनता के स्तर पर उतारा। इसने वनों के महत्व को समझाने और जल, मिट्टी, और वायु के संरक्षण के प्रति संवेदनशीलता बढ़ाने में मदद की।
अब विचार का अगला मुद्दा यह है कि क्या संवेदनशीलता से मात्र नवप्रवर्तन ही होता है या फिर कुछ नवीन सृजन भी होता है? ध्यातव्य है कि नवप्रवर्तन, सृजनशीलता का ही व्यावहारिक रूप है । कभी-कभी हम दोनों में अत्यंत ही सूक्ष्म अंतर होने के कारण दोनों को एक दूसरे का पर्याय मान लेते हैं । परंतु ऐसा नहीं है क्योंकि जितनी सूक्ष्म रेखा नफ़रत और शत्रुता के बीच, मानवता और इंसानियत के बीच व शांति और निष्क्रियता के बीच है लगभग उतनी ही सूक्ष्म रेखा नवप्रवर्तन और सृजनशीलता के बीच है । नवप्रवर्तन वह है, जिसमें मौजूदा प्रणालियों, विचारों, या उत्पादों में सुधार और विकास किया जाता है जबकि सृजनशीलता वह है, जिसमें कुछ नया और मौलिक उत्पन्न किया जाता है, जो पहले से अस्तित्व में नहीं था। सृजनशीलता केवल विचारों और कल्पनाओं का खेल नहीं है; यह उन भावनाओं और अनुभवों का परिणाम है, जिन्हें संवेदनशीलता के माध्यम से गहराई से महसूस किया गया हो। संवेदनशीलता व्यक्ति को उसकी आंतरिक और बाहरी दुनिया से जोड़ती है, जिससे वह उन विषयों और अनुभवों को देख और समझ पाता है, जिन्हें सामान्य दृष्टिकोण से नहीं देखा जा सकता।
जब कोई व्यक्ति संवेदनशीलता के साथ किसी अनुभव या स्थिति को देखता है, तो वह उसमें छिपे गहन अर्थों को समझ पाता है। यही समझ उसे मौलिक और अद्वितीय तरीके से उस अनुभव को अभिव्यक्त करने के लिए प्रेरित करती है। संवेदनशीलता व्यक्ति को सीमित सोच से बाहर निकालती है और उसे जीवन की विविधता को समझने और उसे सृजन के माध्यम से अभिव्यक्त करने का माध्यम देती है । संवेदनशीलता व्यक्ति को अपने विचारों और भावनाओं को अभिव्यक्त करने की शक्ति देती है। यह व्यक्ति को प्रेरित करती है कि वह अपने अनुभवों और दृष्टिकोणों को सृजनशीलता के माध्यम से साझा करे।
उदाहरण के लिए, महात्मा गांधी ने भारतीय समाज की समस्याओं को महसूस किया और अपनी संवेदनशीलता के द्वारा भारतीय जनता के बीच सत्याग्रह और अहिंसा के विचार को प्रसारित किया। यह विचार न केवल भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में सृजनात्मकता का प्रतीक था, बल्कि दुनिया भर में सामाजिक और राजनीतिक परिवर्तन का एक मजबूत आधार बना। ध्यातव्य है कि उस समय अधिकांश देश हिंसा के माध्यम से स्वतंत्रता प्राप्ति पर जोर दे रहे थे जबकि महात्मा गांधी द्वारा सत्याग्रह और अहिंसा के माध्यम से स्वतंत्रता प्राप्ति का विचार स्वयं में मौलिक था जो उनकी सृजनशीलता का प्रतीक था और निश्चित ही यह सृजनशीलता उन्हें संवेदनशीलता से प्राप्त हुई थी जो उस समय भारतीय व दक्षिण अफ़्रीकी लोगों पर हो रहे अत्याचारों व समस्याओं का परिणाम थी । अंततः उनका यह दृष्टिकोण पूरी दुनिया में व्यापक परिवर्तन ला सका और कई राष्ट्रों ने इसके माध्यम से स्वतंत्रता प्राप्त की व कई ने अपने लोगों के लिए अधिकार प्राप्त किये ।
इसी प्रकार रवींद्रनाथ टैगोर ने पारंपरिक शिक्षा पद्धति, जो रटने पर और परीक्षा पर केंद्रित थी, से हटकर एक ऐसी शिक्षा प्रणाली को अपनाया जो प्रकृति के साथ तालमेल बैठाती थी और सृजनात्मकता को प्रोत्साहित करती थी। उन्होंने गुरुकुल शैली और आधुनिक शिक्षा का संगम किया। कक्षाएं खुली प्रकृति में होती थीं, जो बच्चों को रचनात्मक रूप से सोचने और स्वतंत्र रूप से सीखने का अवसर देती थीं। उनके द्वारा संचालित किये गए शांतिनिकेतन विद्यालय का उद्देश्य केवल पाठ्यपुस्तकों तक सीमित नहीं था। इसका लक्ष्य था बच्चों के व्यक्तित्व का समग्र विकास, जिसमें कला, संगीत, साहित्य, और प्रकृति से जुड़ाव पर बल दिया गया। उन्होंने शांतिनिकेतन को एक अंतरराष्ट्रीय शिक्षा केंद्र बनाने का सपना देखा, जहाँ विभिन्न संस्कृतियों और विचारों का आदान-प्रदान हो सके। यह विचार उस समय के लिए अनूठा और नवीन था। यह उनकी बच्चों के प्रति संवेदनशीलता व स्वयं के द्वारा अनुभव की गई पीड़ा का परिणाम था क्योंकि एक समय था जब वह स्वयं उस समय के प्रचलित स्कूलों की शिक्षा से परेशान थे और पीड़ा का अनुभव कर रहे थे ।
इसके अलावा मदर टेरेसा द्वारा समाज के हाशिए पर रहने वाले लोगों के लिए किए गए सेवा कार्य भी सृजन के अंतर्गत आते हैं। मदर टेरेसा ने "मिशनरीज ऑफ चैरिटी" की स्थापना की, जो गरीबी, बीमारी और सामाजिक उपेक्षा के शिकार लोगों की सहायता करती है। उनके कार्य में यह विशिष्टता थी कि उन्होंने न केवल परंपरागत तरीकों से मदद की, बल्कि सेवा कार्य को एक नए दृष्टिकोण के साथ जोड़ा। उन्होंने असहाय और गरीबों की मदद के लिए एक नए दृष्टिकोण का निर्माण किया, जो मानव सेवा को आत्मिकता और संवेदनशीलता से जोड़ता है।
यही नहीं पुनर्जागरण काल के समय हमें साहित्य व कला में नवप्रवर्तन व सृजनशीलता एक साथ देखने को मिलती है । पुनर्जागरण काल में कला के क्षेत्र में सुधार हुआ, जो पहले के पारंपरिक दृष्टिकोण से हटकर था। कलाकारों ने मानवता, विज्ञान, और प्रकृति के नए पहलुओं को चित्रित करना शुरू किया, जो एक नवप्रवर्तन था। वहीं, इस समय की कला की नई शैली, विचार और दृष्टिकोण एक सृजनशीलता का उदाहरण थी। पुनर्जागरण काल ने कला को कई नए तरीकों और दृष्टिकोणों से समृद्ध किया, जिनमें वैज्ञानिक, तकनीकी, और दृष्टिगत नवाचार शामिल थे। कलाकारों ने परिप्रेक्ष्य का उपयोग कर चित्रों में यथार्थवाद और गहराई को बढ़ावा दिया। माइकल एंजेलो और लियोनार्डो दा विंची जैसे कलाकारों ने मानव शरीर के गहन अध्ययन से कला में यथार्थवाद को नई ऊंचाई दी। धार्मिक विषयों से हटकर मानवीय और प्राकृतिक विषयों पर कला का केंद्रित होना, समाज में एक बड़ा परिवर्तन था। कला ने मानवता, व्यक्तित्व, और भावनाओं को अभिव्यक्त करना शुरू किया जो उस समय के लोगों की संवेदनशीलता का ही परिणाम था। इस काल में कला ने कल्पना को वास्तविकता में बदल दिया। "मोनालिसा" जैसे चित्र सृजनशीलता के शिखर का प्रतीक हैं। कला, साहित्य और संगीत का गहरा संगम हुआ। कविताओं और संगीत ने चित्रों को नई गहराई और भावनात्मकता दी। कलाकारों ने समाज, मनुष्य की भावनाओं और समस्याओं को समझते हुए अपने चित्रों और मूर्तियों में इन्हें अभिव्यक्त किया । उदाहरण: "पिएटा" में माइकल एंजेलो ने मातृत्व और दुःख को अत्यंत संवेदनशीलता से उकेरा। कला ने धार्मिक कट्टरता और मध्यकालीन रूढ़ियों को तोड़कर समाज में एक नई सोच का संचार किया जो निश्चित ही संवेदनशीलता से प्रेरित थी ।
इसके अतिरिक्त समाज में बड़े परिवर्तन लाने के लिए भी संवेदनशीलता अत्यंत महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह उस परिवर्तन की दिशा और उद्देश्य को निर्धारित करती है। जब हम समाज में बदलाव की बात करते हैं, तो यह केवल तकनीकी या राजनीतिक सुधारों से संबंधित नहीं होता, बल्कि यह सामाजिक समावेशन, मानवाधिकार, न्याय, समाज की समस्याओं की पहचान और समाज के कमजोर वर्गों की भलाई जैसी गहरी मानवीय भावनाओं से जुड़ा होता है और इस प्रकार के बदलाव की प्रेरणा संवेदनशीलता से ही मिलती है। समाज में बदलाव तभी संभव है जब उसके विभिन्न पहलुओं—जैसे असमानता, गरीबी, शोषण, पर्यावरणीय संकट, आदि—को गहरे और संवेदनशील तरीके से समझा जाए। यदि हम इन समस्याओं की वास्तविकता को महसूस नहीं करेंगे, तो बदलाव की दिशा स्पष्ट नहीं हो सकती। आज हम जो अपने सामने समाज में व्यापक सुधार देख पा रहे हैं उन सभी का कारण समाज में कोई न कोई संस्था, पहल या कोई सकारात्मक कदम रहा है ।
सामाजिक आंदोलनों व पहलों जैसे - महिला अधिकार आंदोलन, जातिवाद के खिलाफ संघर्ष, मजदूरों के अधिकार के लिए मांग, मानवाधिकार आंदोलन और गरीबी व असमानता की समाप्ति हेतु विभिन्न पहलें व कदम आदि और विभिन्न सामाजिक संस्थाएं जैसे - यूनिसेफ, यूएनडीपी, संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी एजेंसी, ऑक्सफैम इंटरनेशनल, रेड क्रॉस, डॉक्टर्स विदाउट बॉर्डर्स, गेट्स फाउंडेशन, एमनेस्टी इंटरनेशनल, वर्ल्ड फूड प्रोगाम आदि। प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण के लिए आंदोलन जैसे चिपको आंदोलन और जल, जंगल और ज़मीन के अधिकारों का आंदोलन। राजनीतिक बदलाव जैसे स्वतंत्रता संग्राम, गांधीजी के सत्य और अहिंसा के सिद्धांत, और नेल्सन मंडेला का रंगभेद विरोध। सामाजिक सुधार जैसे राजा राममोहन राय द्वारा सती प्रथा का विरोध और साहित्य के माध्यम से समाज में सुधारात्मक दृष्टिकोण। पर्यावरण संरक्षण हेतु विभिन्न संस्थाओं जैसे - यूएनईपी, आईयूसीएन, आईपीसीसी, डब्ल्यूडब्ल्यूएफ आदि का गठन और इसी उद्देश्य से की गई पहलें जैसे - क्योटो प्रोटोकॉल, पेरिस समझौता, ग्रीन क्लाइमेट फंड, सतत विकास लक्ष्य आदि व इसी दिशा में बनाए गए कानून व किए गए समझौते जैसे - मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल, बायोडायवर्सिटी कन्वेंशन, बेसल कन्वेंशन, रामसर कन्वेंशन आदि। इन सभी के द्वारा समाज में बड़े परिवर्तन लाए गए हैं और इन सभी के मूल में संवेदनशीलता ने ही कार्य किया है ।
उपर्युक्त विश्लेषण से ऐसा लगता है कि प्रत्येक सृजनशील व नवप्रवर्तन करने वाला व्यक्ति स्वाभाविक रूप से संवेदनशील होता है परंतु ऐसा नहीं है । ध्यातव्य है कि संवेदनशीलता नवप्रवर्तन व सृजन के लिए एक प्रेरणा का कार्य करती है जैसा कि रवींद्रनाथ टैगोर और मदर टेरेसा के मामले में देखा जा सकता है । परंतु यह सृजनशीलता व नवप्रवर्तन की अनिवार्य शर्त नहीं है । ऐसा इसलिए है क्योंकि नवप्रवर्तन व सृजनशीलता कभी-कभी संकुचित स्वार्थों से प्रेरित हो सकती है तो कभी-कभी यह तकनीकी, वैज्ञानिक या व्यावसायिक दक्षता का परिणाम भी होती है, जिसमें दूसरों की भावनाओं या समस्याओं को समझने की आवश्यकता नहीं होती। उदाहरण के लिए, “पिकासो” एक महान कलाकार थे, लेकिन उनकी सृजनशीलता हमेशा मानवीय संवेदनाओं के प्रति संवेदनशीलता से प्रेरित नहीं थी। सभी सृजनशील व्यक्तियों में संवेदनशीलता नहीं होती, लेकिन संवेदनशीलता सृजनशीलता को गहराई और उद्देश्य देती है। जब सृजनशीलता और संवेदनशीलता का समावेश होता है, तो परिणाम समाज और मानवता के लिए अधिक लाभकारी होते हैं और जब यह स्वार्थों से प्रेरित होती है तो इसके परिणाम भी भयानक होने की संभावना बनी रहती है ।
समाज में कम होती संवेदनशीलता व सहनशीलता संबंधों में टूटन व बिखराव का कारण बनती है व सामाजिक विद्वेष को बढ़ावा देती है और इसे आज हम अपने चारों ओर महसूस कर सकते हैं। आज हमें विचार करने की आवश्यकता है कि क्या बढ़ते धार्मिक अतिवाद, आतंकवाद व संगठित अपराध के मूल में कम होती हुई संवेदनशीलता या संवेदनशीलता का अभाव नहीं है ? आज जो विभिन्न जघन्य सामाजिक अपराध हमारे चारों ओर घटित हो रहे हैं क्या उनमें संवेदनशीलता की कमी की मुख्य भूमिका नहीं है ? और यदि है तो क्या यह संवेदनशीलता की कमी हमारी रचनात्मक क्षमता व नवप्रवर्तन की क्षमता को नकारात्मक रूप से प्रभावित नहीं करेगी ? क्या यह हमारे विकास की गति को मंथर नहीं बना देगी ? क्या यह हमारे भीतर अन्य मूल्यों जैसे - सहानुभूति, समानुभूति, करुणा, दया, परोपकार और प्रेम के अभाव का कारण नहीं बनेगी ? और यदि ऐसा है तो हमें निश्चित ही संवेदनशीलता को बढ़ावा देने का प्रयास करना चाहिए क्योंकि इसका अभाव न केवल नवप्रवर्तन, सृजनशीलता व परिवर्तन में ठहराव लाएगा बल्कि नैतिकता के अन्य आधारभूत मूल्यों की बुनियाद भी हिला कर रख देगा। चूँकि संवेदनशीलता के अभाव में व्यक्ति या समाज समस्याओं को पहचानने, महसूस करने और समाधान खोजने की क्षमता खो देता है। बिना संवेदनशीलता के, सृजनशीलता मात्र तकनीकी कौशल बनकर रह जाती है और नवप्रवर्तन केवल लाभ आधारित दृष्टिकोण पर सीमित हो जाता है। समाज को प्रगतिशील और परिवर्तनशील बनाए रखने के लिए संवेदनशीलता का होना अनिवार्य है।
हालांकि संवेदनशीलता सृजनशीलता और नवप्रवर्तन की आधारशिला है। परंतु यदि इसे अति संवेदनशीलता या नकारात्मकता के रूप में अपनाया जाए, तो यह समाज में भ्रम और अनावश्यक संघर्षों का कारण भी बन सकती है। इसलिए यह आवश्यक है कि संवेदनशीलता का संतुलित और सकारात्मक उपयोग किया जाए, ताकि यह सृजनशीलता का सशक्त उत्प्रेरक बने। संवेदनशीलता, जब सही दिशा में प्रयोग की जाती है, तो समाज और विश्व के समग्र कल्याण के लिए अनेक समाधान प्रस्तुत कर सकती है। यदि हम अपनी संवेदनशीलता को नवप्रवर्तन, सृजनशीलता और परिवर्तन के रूप में अभिव्यक्त करते हैं, तो यह हमें नए रास्ते और संभावनाएं प्रदान कर सकती है और हमें जलवायु परिवर्तन, गरीबी और अन्य वैश्विक समस्याओं के समाधान की कुंजी प्रदान कर एक बेहतर भविष्य की ओर अग्रसर कर सकती है। अंततः यह कहा जा सकता है कि : -
By Ayush Sharma
Excellent
Nice work
Nice work 💯
अद्भुत तरीके से लिखा है आपने आपकी लेखन शैली बहुत उत्तम है 💐
.