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सिलवटे

By Mrinalini Gajbe




कुछ समय पहले की बात है | मैं स्टेशन पर एक बेंच पर बैठी अपनी ट्रेन का इंतजार कर रही थी | सामने कुछ लोग ज़मीन पर अपना बिछौना डाले बैठे थे | उसमे एक बूढे बाबा थे| हाथ मे कागज़ मे लिये कुछ खा रहे थे| तभी उनके पास एक जवान लडका आया| वह नशे मे था |



उनके सामने बैठ उन्हे घूरने लगा | बाबा ने उसे अपने हाथ का कागज़ द डाला | वह लडका जल्दी जल्दी कागज़ मे से खाने लगा | बाबा उसके खाने तक बैठे रहे, फिर उसे जाने का इशारा किया | लडका वहा से चला गया |बाबा ने अपने बिछौने की सिलवटे सही कर , उसे झटक कर ,अपनी गठरी सिरहाने रख, एक फटी सी मैली सी चादर ओढ कर लेट गये |

तभी गाडी का हौर्न सुनाई पडा और मै अपनी मंजिल की ओर चल दी|

आज भी अपने बिस्तर की सिलवटे सही करते समय मुझे वह बूढे भिखारी बाबा की याद कभी कभी आती है और यह समझ मे आता है कि भिखारियो को दुत्कारने वाले अक्सर यह भूल जाते है कि इन्सान भले ही राजा हो या रंक आखिर वह इन्सान ही तो है |



By Mrinalini Gajbe




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