By Neeru Walia
नफ़रतों के शहर में ,
सुकून की तलाश में ।
दर-ब-दर भटक रहे हैं ,
चेहरे पर चेहरा लगाए,
इंसान ही एक दूसरे को छल रहे हैं।
जिंदगी से बड़ी रब से मिली कोई सौगात नहीं होती,
इससे ही गिले-शिकवे करें।
ऐसी हमारी औकात नहीं होती,
इस शहर में हर आदमी क्यों खुद से खफा है?
यह वक्त की नज़ाकत है या रब की रज़ा है?
रोशनियों के शहर में बसे लोग,
न जाने क्यों बुझे -बुझे से नजर आते हैं ,
उम्मीद से ज्यादा ज़िदगी ने दिया,
फिर भी शिकवे -शिकायत करते नजर आते हैं।
नफरतों और द्वेष की कुछ ऐसी आઁधियाઁ चल रही हैँ,
जिंदगी जीने के लिए हर साઁस भी बेईमानी सी लग रही है।
इंसानियत और शराफ़त हर पल दफन होती है जहाँ,
ऐसी मुर्दों की बस्ती में हमने भी आशियाना बनाया है।
ईश्वर करे हवाओं का रुख़ कुछ यूँ बदल जाए ,
इंसानियत फिर कभी शर्मसार न हो पाए,
इंसानियत फिर कभी शर्मसार न हो पाए।
By Neeru Walia
nice
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very true
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reality