By Ayush Sharma
कुछ समय पहले, मैंने एक चोट के कारण शारीरिक कष्ट का अनुभव किया। दर्द असहनीय था, लेकिन जब मैंने ध्यान लगाया और अपने विचारों को शांत किया, तो मुझे एहसास हुआ कि दर्द केवल शरीर तक सीमित है। मेरी मनःस्थिति ने उस दर्द को कभी बढ़ा दिया तो कभी कम कर दिया। यह मेरे लिए एक नई समझ लेकर आया। उस अनुभव ने मेरे मन में कई प्रश्नों को जागृत किया जैसे - क्या कष्ट का कोई स्थायी अस्तित्व नहीं है? क्या यह केवल हमारे दृष्टिकोण और समझ का खेल है? क्या कष्ट एक भ्रम है? क्या यह केवल हमारी मानसिक और शारीरिक प्रतिक्रियाओं का परिणाम है? यदि कष्ट का कोई स्थायी अस्तित्व नहीं है, तो हम इसे इतनी गहराई से क्यों महसूस करते हैं? क्या यह संभव है कि कष्ट केवल एक अनुभव है, जो हमारे सोचने के ढंग पर निर्भर करता है? आदि। चूँकि हम सभी अपने जीवन में कभी न कभी शारीरिक या मानसिक रूप से कष्ट का अनुभव करते हैं अतः यह आवश्यक है कि इन सभी प्रश्नों का विश्लेषण किया जाए क्योंकि इसके पश्चात ही हम यह जान सकते हैं कि हम जो कष्ट सहते हैं, वास्तव में उनका अस्तित्व है या नहीं।
कष्ट को मूलत: दो भागों में बांटा जा सकता है - आंतरिक कष्ट व बाह्य कष्ट। जहाँ आंतरिक कष्ट व्यक्ति के भीतर उत्पन्न होता है और उसकी मानसिक, भावनात्मक, या आध्यात्मिक स्थिति से जुड़ा होता है वहीं बाह्य कष्ट बाहरी परिस्थितियों, भौतिक अनुभवों, या सामाजिक कारकों से उत्पन्न होता है। आंतरिक कष्ट में चिंता, तनाव, अवसाद, किसी प्रियजन को खोने का दुःख, जीवन के उद्देश्य को प्राप्त न कर पाने का दुःख और कभी-कभी अकेलेपन को लेकर उत्पन्न शून्यता का कष्ट आदि शामिल होते हैं । बाह्य कष्ट में चोट, बीमारी, या शारीरिक दर्द के कारण कष्ट, गरीबी, भेदभाव, या सामाजिक बहिष्कार के कारण कष्ट व युद्ध, प्राकृतिक आपदा, या पर्यावरणीय संकट के कारण कष्ट आदि शामिल होते हैं ।
अब प्रश्न यह उठता है कि हम जो कष्ट सहते हैं वास्तव में उनका अस्तित्व है या नहीं? इसे विभिन्न दृष्टिकोणों से समझा सकता है। मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण के अनुसार कष्ट का अनुभव हमारी मानसिक स्थिति और हमारी प्रतिक्रियाओं से जुड़ा होता है। हम एक ही घटना को कैसे देखते हैं, यह हमारे कष्ट के स्तर को निर्धारित करता है। उदाहरण के लिए, एक ही परिस्थिति किसी को बहुत कष्ट दे सकती है, जबकि दूसरा व्यक्ति इसे सहजता से स्वीकार कर सकता है जैसे - एक व्यक्ति नौकरी खोने व असफलता को जीवन का अंत मान सकता है, जबकि दूसरा इसे एक नए अवसर के रूप में देख सकता है। इस प्रकार "कष्ट" हमारे मस्तिष्क द्वारा बनाई गई धारणा हो सकती है, न कि वास्तविकता। आध्यात्मिक दृष्टिकोण के अनुसार अद्वैत वेदांत कहता है कि संसार माया है—अर्थात, यह एक भ्रम है। अगर संसार स्वयं भ्रम है, तो कष्ट भी भ्रम का ही एक हिस्सा है। आत्मा (हमारा असली स्वरूप) न तो जन्मता है और न ही मरता है। यह अजर, अमर और नित्य है। इसलिए, जो कष्ट हमें महसूस होते हैं, वे केवल हमारे शरीर या मन तक सीमित हैं, आत्मा तक नहीं पहुँचते। ध्यान और आत्मज्ञान के माध्यम से इस सत्य को समझा जा सकता है कि हम कष्टों के पार हैं। दार्शनिक दृष्टिकोण के अनुसार कष्ट को वास्तविक मानने का अर्थ है इसे स्थायी और सार्वभौमिक मानना। परंतु कष्ट अस्थायी होता है; यह समय के साथ घटता या समाप्त हो जाता है। इस प्रकार इसका कोई स्थायी स्वरूप नहीं है और यह हमारे दृष्टिकोण और जागरूकता के स्तर पर निर्भर करता है। प्लेटो जैसे दार्शनिक भी मानते थे कि हम जो अनुभव करते हैं, वह "असली" नहीं होता, बल्कि हमारे मन की छाया मात्र है। विज्ञान और न्यूरोलॉजी के दृष्टिकोण के अनुसार दर्द और कष्ट मस्तिष्क में उत्पन्न संकेत हैं। यदि मस्तिष्क इन संकेतों को अलग तरीके से समझे, तो कष्ट की अनुभूति बदल सकती है। ‘प्लेसबो इफेक्ट’ इसका उदाहरण है, जहाँ व्यक्ति को बिना वास्तविक इलाज के ही आराम महसूस होता है। ‘प्लेसबो इफेक्ट’ दरअसल एक ऐसी मनोवैज्ञानिक और शारीरिक घटना है जिसमें किसी व्यक्ति को दी गई कोई निष्क्रिय या अप्रभावी चिकित्सा (जैसे नकली दवा या इलाज) उसके स्वास्थ्य या स्थिति में सुधार कर सकती है, केवल इसलिए क्योंकि व्यक्ति को विश्वास है कि यह प्रभावी है। जब व्यक्ति को लगता है कि उसे असली उपचार दिया गया है, तो उसका मस्तिष्क यह मान लेता है और सकारात्मक प्रतिक्रिया देना शुरू कर देता है। मस्तिष्क में डोपामिन, एंडोर्फिन जैसे रसायनों का उत्पादन होता है, जो दर्द को कम कर सकते हैं और खुशी की भावना उत्पन्न कर सकते हैं। प्लेसबो इफेक्ट मस्तिष्क और तंत्रिका तंत्र के माध्यम से शारीरिक प्रतिक्रियाओं को प्रभावित कर सकता है। इससे रक्तचाप, हृदय गति, और प्रतिरक्षा प्रणाली में सुधार हो सकता है। कई बीमारियों में प्लेसबो इफेक्ट को 30-40% तक प्रभावी पाया गया है। समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण के अनुसार कष्ट का अनुभव हमारी सामाजिक परिस्थितियों और जीवनशैली से भी जुड़ा है। यदि हम कष्ट को जीवन का अभिन्न हिस्सा मानते हैं, तो यह बड़ा और असहनीय लगता है। लेकिन यदि इसे अस्थायी और सीखने का माध्यम मानें, तो यह कम प्रभावी हो सकता है।
अब कोई यह प्रश्न कर सकता है कि शारीरिक कष्ट तो प्रत्यक्ष रूप से सभी व्यक्तियों को अनुभव होता है तो इसे कैसे अवास्तविक माना जा सकता है? शारीरिक कष्ट को अवास्तविक मानना पहली दृष्टि में अस्वाभाविक लग सकता है, क्योंकि इसे हर कोई अनुभव करता है। लेकिन जब इसे गहराई से समझा जाए, तो यह विचार मुख्यतः दर्शन, मनोविज्ञान, और आध्यात्मिकता से जुड़ा है। ये दृष्टिकोण शारीरिक कष्ट के मूल स्वरूप, उसके अस्तित्व, और हमारी उससे जुड़ी धारणा पर सवाल उठाते हैं। शारीरिक कष्ट का अनुभव मुख्यतः हमारे मस्तिष्क और उसकी व्याख्या पर निर्भर करता है। यदि किसी व्यक्ति का ध्यान दर्द से हटाकर किसी अन्य गतिविधि पर केंद्रित किया जाए, तो दर्द की तीव्रता कम महसूस हो सकती है। उदाहरण के लिए, जब किसी छोटे बच्चे को सुई (सीरिंज) लगाई जाती है तो उसे खिलौना पकड़ा दिया जाता है जिससे उसका ध्यान भटक जाता है और इस कारण उसे दर्द का अनुभव बहुत कम समय के लिए होता है। इस प्रकार हमारे मस्तिष्क की प्रतिक्रिया से दर्द का अनुभव अधिक या कम हो सकता है। इसके अलावा योग व ध्यान अभ्यास करने वाले लोग शारीरिक दर्द को सहन करने की अधिक क्षमता रखते हैं। शारीरिक कष्ट अक्सर अस्थायी होता है, चाहे वह कितना भी तीव्र क्यों न हो। उदाहरण के लिए, चोट लगने का दर्द समय के साथ कम हो जाता है व बीमारी से उबरने पर दर्द का अस्तित्व समाप्त हो जाता है। यदि कोई चीज अस्थायी है, तो क्या उसका वास्तविक अस्तित्व है? बौद्ध दर्शन के अनुसार, "जो अस्थायी है, वह अवास्तविक है।" चूँकि दर्द के संकेत तंत्रिका तंत्र द्वारा भेजे जाते हैं, और मस्तिष्क इसे व्याख्यायित करता है। यदि मस्तिष्क को संकेत प्राप्त न हो, तो दर्द का अनुभव भी नहीं होगा। उदाहरण के लिए, एनेस्थीसिया (निश्चेतना) के दौरान व्यक्ति को दर्द नहीं होता, भले ही शारीरिक चोट हो। इस प्रकार शारीरिक कष्ट अनुभव का एक महत्वपूर्ण भाग है, लेकिन इसे अवास्तविक कहने का आधार यह है कि यह मस्तिष्क की व्याख्या और प्रतिक्रिया पर निर्भर करता है। इसका अस्तित्व अस्थायी और परिवर्तनशील है। यह केवल शरीर से जुड़ा है, आत्मा से नहीं। मानसिक और आध्यात्मिक दृष्टिकोण से इसे नियंत्रित या समाप्त किया जा सकता है।
अब प्रश्न यह है कि क्या यह कथन व्यावहारिक जीवन में लागू हो सकता है, या यह केवल एक दार्शनिक सत्य है क्योंकि अगर कष्ट वास्तव में अस्तित्वहीन हैं, तो समाज में सुधार, न्याय, और सहानुभूति की आवश्यकता क्यों है और क्या कष्ट को नकारना उन लोगों के लिए उचित है जो अत्यधिक शारीरिक या मानसिक पीड़ा में हैं? यह कथन वास्तव में उन व्यक्तियों के लिए उपयुक्त हो सकता है, जो आत्मज्ञान के मार्ग पर हैं और अपने आंतरिक कष्टों को समझने और नियंत्रित करने का प्रयास कर रहे हैं। गीता में कहा गया है, "दुख और सुख मन के भाव हैं।" जबकि समाज में न्याय, सहानुभूति, और सुधार की आवश्यकता इस बात को मानकर चलती है कि कष्ट वास्तविक हैं। यदि किसी गरीब को भूख का कष्ट है, तो उसे "अवास्तविक" कहकर नजरअंदाज करना अमानवीय होगा। मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं से जूझ रहे व्यक्ति को "कष्ट केवल धारणा है" कहकर अकेला छोड़ देना अनुचित होगा। व्यक्तिगत जीवन में यह कथन प्रेरणा और मानसिक संतुलन के लिए उपयोगी हो सकता है। लेकिन समाज में इसे लागू करना सहानुभूति, करुणा, और न्याय की भावना के खिलाफ हो सकता है। कष्ट को नकारना उन समस्याओं को हल करने से बचने का बहाना नहीं बन सकता, जिनसे समाज पीड़ित है। यदि हम कष्ट को "अवास्तविक" मान लें, तो सहानुभूति, संवेदनशीलता और सेवा का महत्व ही समाप्त हो जाएगा। बौद्ध धर्म स्वयं करुणा और दया का प्रचार करता है। बुद्ध ने दूसरों के कष्ट को समझा और उसका समाधान बताया (दुःख और उसके कारण)। इसके अलावा "कष्ट का अस्तित्व" भले ही दार्शनिक रूप से अवास्तविक हो, लेकिन उसका अनुभव वास्तविक है और उसे दूर करने की आवश्यकता है। उदाहरण के लिए, कोई गरीब भूखा है तो दार्शनिक रूप से कहा जा सकता है कि "भूख क्षणिक है," लेकिन उसे भोजन देना मानवता का कर्तव्य है। इसी प्रकार यदि कोई मानसिक अवसाद में है, तो उसकी पीड़ा को "भ्रम" कहकर नकारना क्रूरता होगी। "कष्ट का अस्थायी स्वरूप" हमें भले ही मानसिक शांति दे सकता है परंतु "कष्ट के अस्तित्व" को मानना और उसका समाधान करना एक सामाजिक आवश्यकता है। इस दार्शनिक सत्य और सामाजिक जिम्मेदारी के बीच सामंजस्य बनाने की आवश्यकता है ।
लेकिन फिर भी हमें स्वयं के लिए कष्ट को अवास्तविक मानने का प्रयास करना चाहिए क्योंकि कई जगहों पर यह हमारे व्यक्तिगत जीवन को बेहतर बना सकता है। कष्ट को अवास्तविक मानने का अर्थ यह बिल्कुल नहीं है कि इसे पूरी तरह से नकार दिया जाए, बल्कि यह है कि इसे समझा जाए, उसकी प्रकृति को पहचाना जाए, और इसे जीवन में एक नकारात्मक बाधा के बजाय एक क्षणिक अनुभव के रूप में देखा जाए। यह दृष्टिकोण व्यक्ति को मानसिक शांति और सुखमय जीवन की ओर ले जा सकता है। इसके लिए सर्वप्रथम कष्ट की प्रकृति को समझना आवश्यक है। ध्यातव्य है कि कष्ट अस्थायी है और हमारा मन ही है जो हमें इसे अनुभव करवाता है । यदि हम इस सत्य को समझ सकें तो निश्चित ही कष्ट की पीड़ा का कम अनुभव करेंगे। यह समझना कि "यह भी बीत जाएगा," व्यक्ति को कष्ट से ऊपर उठने की शक्ति देता है। इसके अलावा अधिकतर कष्ट अतीत की घटनाओं के पश्चाताप या भविष्य की आशंकाओं से जुड़े होते हैं। वर्तमान क्षण पर ध्यान केंद्रित करने से कष्ट की तीव्रता कम हो जाती है। इस प्रकार अतीत के पश्चाताप व भविष्य की चिताओं से मुक्त होकर कई मानसिक कष्टों से मुक्त हुआ जा सकता है । कष्ट का मुख्य कारण हमारी आसक्ति है। यदि हम किसी भी वस्तु, व्यक्ति, या अनुभव के प्रति निर्लिप्त रहें, तो कष्ट का प्रभाव कम हो जाता है। यही नहीं कभी-कभी कष्ट का विरोध करने के बजाय उसे स्वीकार करना सीखें और यह सोचें कि "यह जीवन का हिस्सा है, इसे स्वाभाविक रूप से आने दें और जाने दें" तो यह मानसिक तनाव और संघर्ष को कम करता है। हर कष्ट हमें कुछ सिखाने आता है। इसे विकास और आत्मबोध का साधन मानें और साथ ही साथ यह भी मान कर चलें कि भविष्य हमारे लिए कुछ बेहतर लेकर आएगा। इसके अतिरिक्त जो कुछ आपके पास है, उसके लिए आभार व्यक्त करें। यह सोचें कि आपका कष्ट दूसरों की समस्याओं की तुलना में कितना छोटा हो सकता है। ध्यान व आत्म-जागरूकता अन्य माध्यम हैं जिनसे कष्ट को कम अनुभव किया जा सकता है । इसके अलावा दूसरों की मदद करें क्योंकि जब हम दूसरों के कष्टों को दूर करने का प्रयास करते हैं, तो हमारा अपना कष्ट हमें छोटा लगने लगता है व सेवा से आत्मिक संतोष और आंतरिक सुख प्राप्त होता है।
इस प्रकार जब हम कष्ट का अनुभव करते हैं, तो वह मूलत: हमारे अनुभव और दृष्टिकोण से प्रभावित होता है। यह समझना महत्वपूर्ण है कि कष्ट अस्थायी है और इसे जीवन का अंतिम सत्य मानना हमारे विकास में बाधा डाल सकता है। मानसिक शांति और सुखमय जीवन के लिए आवश्यक है कि हम कष्ट को क्षणिक अनुभव के रूप में देखें और उससे प्रेरणा लेकर अपने व्यक्तित्व और दृष्टिकोण को बेहतर बनाएं। कष्ट को देखने का ढंग बदलने पर, कष्ट अपने-आप समाप्त हो सकता है। कष्ट के अस्तित्व को पूरी तरह से नकारा भी नहीं जा सकता क्योंकि यह समाज में उदासीनता और असंवेदनशीलता को जन्म दे सकता है। ऐसा दृष्टिकोण उन लोगों के लिए हानिकारक हो सकता है, जो अत्यधिक शारीरिक या मानसिक पीड़ा का सामना कर रहे हैं। यह भी संभव है कि इस विचार को गलत तरीके से समझा जाए और लोग कष्ट को हल करने के प्रयासों को ही त्याग दें। इसलिए यह आवश्यक है कि हम इस विचार को लेकर दार्शनिक और व्यावहारिक जीवन के बीच संतुलन बनाकर अपनाएं।
By Ayush Sharma
Bahut sahi bhai
❤️❤️
Bahut khub...
Nice
Badiya sarmaji